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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
में गौतम गोत्रीय प्रायं वज्र से वज्री शाखा का प्रकट होना प्रार्य रथ से जयन्ती शाखा के प्रकट होने का उल्लेख है ।"
कल्प सूत्रस्थ स्थविरावली में आर्य रथ से प्रचलित हुई श्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों का ही गणाचार्य परम्परा के रूप में नामोल्लेख किया गया है अतः प्रस्तुत ग्रन्थ में भी कल्पसूत्रीया स्थविरावली का अनुसरण करते हुए उसे प्रमुख मानकर गरण परम्परा के रूप में उस ही का उल्लेख किया गया है। दुर्भाग्य है कि आर्य रथ से प्रचलित हुई इस गणाचार्य परम्परा के प्राचार्यों का नामोल्लेख के अतिरिक्त कोई परिचय प्राज उपलब्ध नहीं होता। दूसरी ओर गुर्वावली, तपागच्छ पट्टावली और वीरवंशावली श्रादि में वज्रसेन के पश्चात् प्रार्य चन्द्र से प्राचार्य परम्परा चलती है । ऐसी स्थिति में प्रार्य रथ से चलने वाली प्राचार्य परम्परा के प्राचार्यों का कोई परिचय उपलब्ध न होने के काररण यहां उनके नाम मात्र बताये जा सकेंगे । और श्रार्य चन्द्र से चलने वाली परम्परा के प्राचार्यों का यत्किचित् जो परिचय प्राप्त होता है, उसे यहां संक्षेपतः दिया जायगा ।
[प्रायं रथ गणाचार्य
तथा प्रगले सूत्र में
सातवां निहव गोष्ठामा हिल
सातवां एवं अन्तिम निह्नव गोष्ठामाहिल वीर नि० सं० ५८४ में हुआ । गोष्ठा माहिल ने भगवान् महावीर के सिद्धान्तों के विपरीत प्रपसिद्धान्त 'प्रबद्धिकदर्शन' का प्ररूपण एवं प्रवर्तन किया अत: वह निह्नव कहलाया । गोष्ठामाहिल श्रौर उसके द्वारा प्ररूपित प्रबद्धिक दर्शन का परिचय यहां संक्षेप में दिया जा रहा है ।
अपने जीवन के अन्तिम वर्ष में प्रार्य रक्षित उद्यत विहार से अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए एक दिन अपने शिष्य परिवार सहित दशपुर नगर के बहिरांचल में अवस्थित इक्षुधर नामक स्थान में पधारे ।
उन दिनों मथुरा में प्रक्रियावादियों का वर्चस्व बढ़ रहा था। उन्होंने सभी धर्मावलम्बियों को शास्त्रार्थ के लिये चुनौती दी। प्रक्रियावादियों के साथ वाद करने का किसी विद्वान् ने साहस तक नहीं किया। जैन धर्म की चिरमजित प्रतिष्ठा की रक्षार्थं संघ ने एकत्रित होकर विचार-विमर्श किया । अन्य किसी विद्वान् को प्रक्रियावादियों के साथ शास्त्रार्थ करने में समर्थ न पाकर संघ ने प्रार्थ रक्षित के पास दशपुर ( मन्दसौर) सन्देश भेजकर उन्हें मथुरा में श्राकर प्रक्रियावादियों को परास्त करने की प्रार्थना की। प्रव्रजित होने के प्रथम दिन से ही अपने कर्म समूहों को तप-संयम की प्रचण्ड ज्वालाओं में भस्मावशेष कर डालने का हड़ संकल्प लिये आर्य रक्षित अपने शरीर को अस्थिपंजर मात्र बना चुके थे । . इसके उपरान्त वे बहुत वृद्ध हो चुके थे और उन्हें यह विदित था कि उनके जीवन 'थेरेहितो गां प्रज्ज वइरेहिंतो गोयमसगुतेहिंतो इत्य गं प्रज्ज वइरीसाहा ग्गिया ||१३|| रोहितां अज्ज र हेहितो इत्थ गं प्रज्ज जयंती साहा णिग्गया || १४
[कल्प स्थविरावला ]
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