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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [अनुयोगों का पृथक्करण घृतपुष्यमित्र अपनी लब्धि के प्रभाव से साधुनों को जितने घृत की आवश्यकता होती उतना ही घृत और वस्त्र-पुष्यमित्र वस्त्रलब्धि के प्रताप से श्रमरणों की आवश्यकतानुसार वस्त्र किसी गरीब से गरीब गृहस्थ के यहां से भी प्राप्त कर सकते थे। लब्धि के कारण उन दोनों को प्रत्येक ग्रहस्थ क्रमशः घृत और वस्त्र देने के लिए सहर्ष उद्यत रहता था।
दुर्बलिकापुष्यमित्र स्वाध्याय के बड़े रसिक थे अतः अहर्निश स्वाध्याय में निरत रहते थे। निरन्तर स्वाध्याय के कारण वे बड़े दुर्बल हो गये थे। गुरु-चरणों में रहकर सतत. अध्ययन करते हुए उन्होंने पूर्वो का ज्ञान प्राप्त कर लिया। .
आर्य रक्षित के गण में दुर्बलिकापुष्यमित्र, विन्ध, फल्गुरक्षित और गाष्ठामाहिल ये चार सर्वाधिक प्रतिभा एवं योग्यतासम्पन्न मुनि माने जाते थे। उनका अन्य साधुनों पर भी बड़ा प्रभाव था। इनमें विन्ध मुनि प्रत्यन्त मेघावी और सूत्रार्थ की धारणा में पूर्णतः समर्थ थे। अध्ययन के समय अन्य शिक्षार्थी साधुओं के साथ उन्हें जितना सूत्रपाठ प्राचार्य श्री से प्राप्त होता था, उससे उनको संतोष नहीं होता था। मुनि विन्द्य ने एक दिन प्राचार्य की सेवा में निवेदन किया"भगवन् ! मुझे पर्याप्त सूत्रपाठ नहीं मिल पाने के कारण मेरा अध्ययन समीचीन रूपेण नहीं हो रहा है अतः कृपा कर मेरे लिए एक पृथक वाचनाचार्य की व्यवस्था करें।"
प्राचार्य रक्षित ने मुनि विंद्य की प्रार्थना स्वीकार कर प्रार्य दुर्बलिकापुष्यमित्र को आज्ञा दी कि वे विन्द्य मुनि को वाचना दें। कतिपय दिनों तक विन्द्य मनि को वाचना देने के पश्चात् दुर्बलिकापुष्यमित्र ने प्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो निवेदन किया- "गुरुदेव ! मुनि विन्द्य को वाचना देने में निरत रहने के कारण मैं पठित ज्ञान का पूरा परावर्तन नहीं कर पाता अतः अनेक सूत्रपाठ मेरे स्मृतिपटल से तिरोहित हो रहे हैं। पहले पारिवारिक लोगों के यहां आने-जाने के कारण भी परावर्तन नहीं हो पाया था। इस प्रकार मेरा नौवें पूर्व का ज्ञान नष्ट हो रहा है।"
अपने मेधावी शिष्य दुर्बलिकापुष्यमित्र के मुख से विस्मरण की बात सुन कर प्राचार्य रक्षित ने सोचा - "जब ऐसे परम मेधावी मुनि को भी पठितार्थ का स्मरण न करने के कारण विस्मरण हो रहा है तो अन्य की क्या स्थिति होगी ?"
उपयोग-बल से प्राचार्य रक्षित ने भविष्यकालीन साधुओं (शिष्यों) की धारणाशक्ति को मंद जान कर उन पर अनुग्रह करते हुए, वे सुखपूर्वक ग्रहरण और धारण कर सकें इसके लिए प्रत्येक सूत्र के अनुयोग पृथक कर दिये। अपरिणामी और अतिपरिणामी शिष्य नयदृष्टि का मूल भाव नहीं समझ कर कहीं कभी एकान्त ज्ञान, कभी एकान्त क्रिया या एकान्त निश्चय अथवा एकान्त व्यवहार को
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