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सामान्य पूर्वघर-काल : प्रार्य रेवती नक्षत्र परीक्षा लेने पाया और उनके मुख से निगोद की सूक्ष्मतर व्याख्या सुनकर बड़ा प्रसन्न हुमा।'
अनुयोगों का पृथक्करण मनुयोगों के पृथक्कर्ता के रूप में प्रार्य रक्षित का नाम जैन इतिहास में सदा अमर रहेगा।
जैन शासन में प्रारम्भ से ही यह पद्धति रही है कि प्राचार्य अपने मेधावी शिष्यों को मागम के छोटे-बड़े सभी सूत्रों की वाचना देते समय चारों अनुयोगों का उन्हें बोध करा दिया करते थे। उनकी वाचना का वह सही रूप हमारे समक्ष नहीं है तथापि इतना कहा जा सकता है कि वे वाचना देते समय प्रत्येक सूत्र पर माचारधर्म, उनके पालनकर्ता, उनके साधनक्षेत्र का विस्तार भोर नियम ग्रहण की कोटि एवं भंग मादि का वर्णन कर सभी अनुयोगों का एक साथ बोध करा देते होंगे। इसी को अपृथक्त्वानुयोग वाचना कहा जाता है। अपृयक्त्वानुयोग की व्याख्या करते हुए प्रावश्यक मलयगिरि वृत्ति में कहा गया है - "जब चरणकरणानुयोग प्रादि चारों अनुयोगों का प्रत्येक सूत्र पर विचार किया जाय तो उसे अपृथक्त्वानुयोग कहते हैं। प्रपृथक्त्वानुयोग में विभिन्न नय-दृष्टियों का अवतरण किया जाता है और उसमें प्रत्येक सूत्र पर विस्तार के साथ चर्चा की जाती है। पर पृथक्त्वानुयोग की व्यवस्था में ऐसा करना आवश्यक नहीं होता।"
वाचना की यह प्रपृथक्त्वानुयोगात्मक पद्धति आर्य वज तक अक्षुण्णरूपेण चलती रही.। जैसा कि कहा गया है :
"मार्य वजस्वामी तक कालिक मागमों के अनुयोग (वाचना) में अनुयोगों का अपृथक्त्व रूप रहा, उसके पश्चात् मार्य रक्षित से कालिक-श्रुत और दृष्टिवाद के पृषक मनुयोग की व्यवस्था की गई।"
प्रयोगों के पृथक्करण को वह घटना इस प्रकार है :- "प्रार्य रक्षित के धर्मशासन में शानी, ध्यानी, तपस्वी मोर वादी सभी प्रकार के साधु थे। प्रार्य रक्षित के उन शिष्यों में पुष्यमित्र नाम के तीन शिष्य विशिष्ट गुणसम्पन्न और महामेधावी थे। उनमें से एक को दुर्बलिकापुष्यमित्र दूसरे को घृतपुष्यमित्र और तीसरे को वस्त्रपुष्यमित्र के नाम से सम्बोधित किया जाता था। दूसरे और तीसरे पुष्यमित्र मुनि लन्षिसम्पन्न थे।
देविंदरदिएहिं महालुमावेहि रक्सिय प्रबेहि । जुगमासब बिहत्तो, पणुमोगो ता कमो पउहा ॥७७४।।
[पावश्यक मलयगिरि वृत्ति, प० ३६१ (२)] 'पपुहुत्तमेगमावो, सुते सुते सुबित्वरं गत्य । भन्नंतणुभोगा, बरणपम्मसंतागदपाणं ॥
[पावश्यक मलयगिरि वृत्ति पृ० ३८३ (२)] ' जाति प्रग्यारा अपुरत्त बानियामोगे य । तेणारेण पुइत कानिवखुष विट्ठियारे 4 ॥१६३।।
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