________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ प्राचार्य रक्षित
"यथाज्ञापयति देव !" कह कर प्रार्य रक्षित ने पुनः आगे पढ़ना प्रारम्भ किया, पर क्योंकि अब उन्हें पहले के समान आत्मविश्वास नहीं रहा था कि वे अवशिष्ट प्रथाह ज्ञान को हृदयंगम कर सकेंगे अतः वे पुनः पुनः आचार्य वज्र से दशपुर जाने के लिए अनुमति चाहने लगे । इस पर प्राचार्य वज्र के मन में विचार प्राया कि क्या दशवां पूर्व उनके देहावसान के साथ ही विच्छिन्न हो जायगा ? उन्होंने ज्ञानोपयोग लगा कर देखा - "वस्तुतः अब प्रार्य रक्षित दशपुर जाने के पश्चात् लौट कर नहीं आयेगा ।" न कोई ऐसा अन्य सुयोग्य पात्र ही दृष्टिगोचर होता है, जो समस्त पूर्वज्ञान को ग्रहण कर सके और न मेरा आयुष्य ही अब इतना अवशिष्ट है । ऐसी दशा में दशवां पूर्व मेरी आयुसमाप्ति के साथ ही भरतक्षेत्र से नष्ट हो जायगा ।"
५१४
इस प्रकार अपने ज्ञानोपयोग से अवश्यंभावी भवितव्य को देख कर प्राचार्य वज्र ने अन्ततोगत्वा श्रार्य रक्षित को दशपुर जाने की अनुमति प्रदान कर दी ।
इस प्रकार प्रार्य रक्षित ६ पूर्वो का सम्पूर्ण और दशवें पूर्व का प्रपूर्ण - प्राधा ज्ञान ही प्राप्त कर सके । श्राचार्य वज्र की अनुमति प्राप्त होते ही वे अपने अनुज मुनि फल्गुरक्षित के साथ दशपुर की ओर प्रस्थित हुए। दशपुर पहुँचने के पश्चात् प्रार्य रक्षित ने अपने माता-पिता आदि परिजनों को उपदेश देकर प्रतिबुद्ध किया । इसके फलस्वरूप वे सब श्रमरणधर्म में दीक्षित हो गये । रक्षित के पिता खंत ( वृद्ध मुनि) सोमदेव भी पुत्रानुरागवश उनके साथ विचरते रहे पर बाल्यकाल से चले आ रहे संस्कार और लज्जावश वे निर्ग्रन्थ के लिए विहित लिंग वेश धारण नहीं कर पाये । उन्हें आरम्भ में छत्र, उपानत्, यज्ञोपवीत आदि धारण करने की छूट देकर फिर शनैः शनैः पूर्णरूपेण साधुमार्ग में स्थिर किया गया ।
1
नवदीक्षित साधु को लेकर प्रार्य रक्षित अपने गुरु आर्य तोषलिपुत्र की सेवा में पहुँचे । साढ़े नौ पूर्वो के ज्ञानधारी अपने शिष्य श्रार्यं रक्षित को देख कर प्राचार्य तोषलिपुत्र ने परम संतोष का अनुभव किया और उन्हें सर्वथा योग्य समझ कर अपना उत्तराधिकारी प्राचार्य नियुक्त किया ।
प्राचार्य रक्षित ने विभिन्न क्षेत्रों में विहार कर अनेक भव्यजनों को प्रबोध दिया । आवश्यक नियुक्ति में आर्य रक्षित को अनुयोगों का पृथक्कर्ता बताने के साथ-साथ उन्हें शक्रेन्द्र द्वारा वन्दित भी बताया गया है । "देविदवंदिएहि " इस विशेषरण की सार्थकता बताते हुए प्रावश्यक नियुक्ति में बताया गया है कि सीमंधरस्वामी के मुखारविन्द से प्रार्य श्याम ( प्रथम कालकाचार्य ) की ही तरह श्रयं रक्षित की निगोद व्याख्याता के रूप में प्रशंमा सुन कर इन्द्र आर्य रक्षित की
" सोऽथामंस्तेत्यतोयातो, नायमायास्यति पुनः ।
२ तथा दशमपूर्व च मय्येव स्थास्यति ध्रुवम्
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
[ परिशिष्ट पर्व, सर्ग १३] [ प्रभावक च० पृ० १२]
www.jainelibrary.org