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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य रक्षित प्रति अत्यधिक मनराग है। मुझे माशंका है कि वे लोग कहीं मुझे बलात् घर लौटा कर न ले जाएं प्रतः मेरे लिए श्रेयस्कर यही है कि अब शीघ्र ही यहां से किसी अन्य स्थान के लिए विहार कर दिया जाय।"
नवदीक्षित मुनि रक्षित की प्रार्थना स्वीकार कर प्राचार्य तोषलिपुत्र ने अपने शिष्यसमूह सहित इक्षुवाटिका से विहार कर दिया। गुरु-सेवा में रह कर बड़ी लगन के साथ अध्ययन करते हुए मुनि रक्षित ने अल्प समय में ही प्राचारांग मादि एकादश मंगों का पूर्ण अध्ययन और दृष्टिवाद का जितना ज्ञान प्राचार्य तोषलिपुत्र के पास था, उसका अध्ययन कर लिया। .. तदनन्तर पाचार्य तोषलिपुत्र ने मुनि रक्षित को पूर्वो के अग्रेतन अध्ययन के लिए दश पूर्वधर प्राचार्य व स्वामी के पास भेजा। आर्य वज्र की सेवा में जाते समय मुनि रक्षित उज्जयिनी पहुंचे। वहां स्थविर भद्रगुप्त ने युवा मुनि रक्षित का स्वागत करते हुए कहा- "वत्स! तुम ठीक समय पर आ गये। अब मेरा अन्तिम समय मा चुका है। मेरी संलेखना में यहां अन्य कोई निर्यामक नहीं है प्रतः तुम निर्यामक बन कर मेरी संलेखना पूर्ण होने तक यहां मेरे पास ही रहो जिससे कि मेरी संलेखना पूर्ण समाधि के साथ सम्पन्न हो ।”
तपोधन श्रमणश्रेष्ठ स्थविर की अन्तिम सेवा के स्वरिणम सुयोग को अपना महोभाग्य समझ कर मुनि रक्षित उज्जयिनी में स्थविर भद्रगुप्त के पास रहे और उन्होंने बड़ी लगन के साथ उनकी सेवा की।
। अन्त में स्थविर भद्रगुप्त ने मुनि रक्षित से कहा - "वत्स ! तुम पूर्वो का मान प्राप्तकरने के लिए प्राचार्य वध के पास जा रहे हो, यह तो ठीक है पर तुम उनसे अलग उपाश्रय में ठहर कर विद्याभ्यास करना। क्योंकि इस समय प्रार्य वज्र की जन्म कुण्डली में इस प्रकार का योग पड़ा हुआ है कि जो कोई भी उनके पास एक रात्रि के लिए भी ठहरेगा, उसका उन्हीं के साथ मरण होना सुनिश्चित है।" मार्य रक्षित ने स्थविर भद्रगुप्त की आज्ञा को शिरोधार्य किया।
स्थविर भद्रगुप्त के समाधिपूर्वक स्वर्गगमन के पश्चात् आर्य रक्षित ने आर्य वज की सेवा में उपस्थित होने के लिए उज्जयिनी से विहार किया। वे सीधे आर्य वज के उपाश्रय में न जाकर एक पृयक स्थान में ठहरे । प्रातःकाल रक्षित मुनि प्राचार्य वष की सेवा में पहुंचे। मार्य रक्षित के उपाश्रय में पहुँचने से कुछ समय पहले प्राचार्य वज ने अपने शिष्यों से कहा- "मैंने आज रात्रि के अवसान समय में स्वप्न देखा कि एक प्रागन्तुक हमारे यहां पाया और मेरे पात्र में रखा हुआ अधिकांश दूध उसने पी लिया, अल्प दुग्ध ही शेष रहा।"
जिस समय मायं वज अपने शिष्यों से यह कह ही रहे थे, उसी समय आर्य रक्षित ने उनकी सेवा में पहुँच कर सविधि भक्तिसहित वन्दन किया। । प्राचार्य वजस्वामी ने प्रागन्तुक से पूछा - "कहां से आये हो।"
मुनि रक्षित ने कहा - "प्रार्य तोषलिपुत्र की सन्निधि से।'
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