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सामान्य पूर्वधर-काल : मार्य रेवती नक्षत्र प्राचार्य वज्र ने पूछा - "क्या तुम प्रार्य रक्षित हो ?" विनयावनत हो आर्य रक्षित ने कहा - "हां, भगवन् ।"
प्राचार्य वज्र ने "स्वागतम्" कह कर पूछा - "क्या तुम यह नहीं जानते कि पृथक् स्थान में रहते हुए समीचीन रूप से अध्ययन नहीं होता ?"
आर्य रक्षित ने जब प्राचार्य भद्रगुप्त से प्राप्त निर्देश के अनुसार पृथक ठहरने की बात कही तो प्राचार्य वज्र ने कहा - "ठीक है, स्वर्गस्थ प्राचार्य ने किसी कारण से ही ऐसा रहा होगा।"
तदनन्तर प्राचार्य वज्र ने प्रार्य रक्षित को पूर्वो की शिक्षा देना प्रारम्भ किया। महामेधावी आर्य रक्षित ने बड़ी लगन और तत्परता से अध्ययन करते हुए अल्प समय में ही नव (6) पूर्वो की शिक्षा पूर्ण कर ली और दशवें पूर्व का अध्ययन प्रारम्भ किया।
__उधर आर्य रक्षित के माता-पिता पुत्रवियोग से चिन्तित हो सोचने लगे - "अहो ! हमने सोचा था कि पुत्र उद्योत करेगा पर वह तो घर में अंधेरा कर चला गया।". उन्होंने आर्य रक्षित को बुला लाने के लिए अपने कनिष्ठ पुत्र फल्गुरक्षित को भेजा।
. फल्गुरक्षित ने आर्य रक्षित के पास पहुँच कर कहा - "माता आपको अहनिश स्मरण करती रहती है। आप अगर एक बार दशपुर चलो तो मातापिता आदि सभी स्वजन प्रव्रज्या ग्रहण कर लेंगे।"
__आर्य रक्षित पूर्णतः अध्यात्मज्ञान में रम चुके थे। उन्होंने समझ लिया था - "संसार के सभी सम्बन्ध नश्वर हैं। तन, धन, परिजन दे कोई मेरा नहीं है। मैं शरीर से भिन्न शुद्ध चेतन हूँ । ज्ञान मेरा स्वभाव और विवेक ही मेरा मित्र है।" - उन्होंने फल्गुरक्षित से कहा - "वत्स ! यदि मेरे चलने पर माता-पिता आदि प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए तत्पर हैं, तो पहले तुम तो प्रव्रज्या ग्रहण कर लो।"
फल्गुरक्षित ने तत्काल प्रव्रज्या ग्रहण कर ली और वे श्रमणधर्म का यथाविधि पालन करते हुए सदा पार्य रक्षित को दशपुर चलने की स्मृति कराते रहे ।
एक दिन आर्य रक्षित ने प्राचार्य वज्र से पूछा - "भगवन् ! अब दशवां पूर्व कितना और पढ़ना शेष है ?''
प्राचार्य वज्र ने कहा - "वत्स अभी तो सिन्धु में से बिन्दु जितना हुआ है और समुद्र जितना शेष है।"
आर्य रक्षित ने इतना विशाल ज्ञान अर्जन करना अपने सामर्थ्य से बाहर ममझ कर आर्य वज्र से दशपुर जाने की अनुमति चाही पर आर्य वज्र ने उन्हें अाश्वस्त करते हुए कहा - "वत्स ! धैर्य धागा करो । अभी और पढ़ो।".. १ दशमस्यास्य पूर्वस्य, मयाधीन कियत्प्रभो। अवशिष्ट कियच्चेति, सप्रसादं समादिश ।।
[परिशिष्ट पर्व, सर्ग १३]
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