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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ कालकाचार्य (द्वितीय)
इस प्रकार के छोटे राज्य की शक्ति अपर्याप्त है और अन्य कोई ऐसा शक्तिशाली राजा नहीं है, जो गर्दभिल्ल से युद्धभूमि में टक्कर ले सके । अतः उन्होंने अपनी बहन को मुक्त करवाने तथा गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने के लिए अपने भानजे बलमित्र - भानुमित्र के अतिरिक्त शकों की भी सहायता प्राप्त की ।
आर्य कालक ने अपनी बहिन को मुक्त करवाने के लिए शकों की भी सहायता प्राप्त की, इस सम्बन्ध में प्रायः सभी लेखक एकमत हैं । किन्तु शक लोग देश के बाहर से लाये गये, अथवा देश में ही विद्यमान युद्धोपजीवी अन्य जातियों एवं शकों को साथ लेकर युद्ध जीता गया, इस सम्बन्ध में ऐतिहासिकों का मतैक्य नहीं है । अधिकांश लेखक आर्य कालक. द्वारा विदेश से शकों का लाया जाना और उनकी सैनिक सहायता से गर्द भिल्ल को राज्यच्युत करना मानते हैं । इसके विपरीत कुछ इतिहासज्ञों ने गहन अनुसन्धान के पश्चात् यह प्रभिमत अभिव्यक्त किया है कि आर्य कालक के समय में सिन्ध प्रान्त में शकों का राज्य था। आर्य कालक उज्जयिनी से सीधे सिन्ध प्रदेश में गये और वहां के शकों को उज्जयिनी पर प्राक्रमरण करने के लिए सहमत किया । तदनन्तर शकों और बलमित्र - भानुमित्र की सेना ने एक साथ उज्जयिनी पर आक्रमण कर गर्दभिल्ल को पराजित किया तथा साध्वी सरस्वती को मुक्त करवाया ।
प्राचीन ग्रन्थ निशीथचूरिंग में कालक के फारस देश में जाने का नहीं अपितु 'पारिसकुल' जाने का तथा वहां के शकराज को अपने निमित्तज्ञान से प्रभावित कर अपना सहायक बनाने का उल्लेख किया गया है। फारस में शकों के साम्राज्य की समाप्ति के पश्चात् वहां के शाह द्वारा चलाये गये शकविरोधी अभियान के कारण जो शक लोग सिन्ध प्रदेश में आकर रहने लगे थे, संभवतः निशीथचूरिंगकार
उन्हीं शकों के लिए पारिस्कुल' शब्द का प्रयोग किया हो। उज्जयिनी से प्रार्य कालक का फारस जैसे सुदूरवर्ती एवं अपरिचित देश में जाना, वहां के शकों का विश्वास प्राप्त करना तथा उन्हें भारत जैसे विशाल देश पर आक्रमण करने के लिए सहमत करना, ये सब कार्य बड़े कष्टसाध्य, समयसाध्य एवं संशयास्पद प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में आर्य कालक द्वारा उस समय सिन्ध प्रदेश में शासन करने वाले शकों की सहायता प्राप्त करने तथा बलमित्र भानुमित्र एवं शकों की संगठित सैन्यशक्ति से गर्दभिल्ल को राज्यच्युत करने की बात अधिक संगत प्रतीत होती है।
जो भी हो इतना तो निश्चित है कि श्रार्य कालक जैसे समर्थ आचार्य ने विवश होकर अन्याय का प्रतिकार तथा दुष्ट का दमन करने के लिए ही अन्य कोई उपाय न होने के कारण युद्ध का सहारा लिया। अपनी सती-साध्वी बहिन के सतीत्व एवं सम्मान की रक्षा के लिए सैन्य शक्ति एकत्रित कर आर्य कालक ने गर्दभिल्ल को उसके अनाचारपूर्ण निकृष्ट दुष्कृत्य का जो दण्ड दिया, उसमें राष्ट्र के विघटन की स्वल्पमात्र भी गंध नहीं हो सकती । यदि आर्य कालक के अन्तर में देश के विघटन की किञ्चित्मात्र भी भावना होती तो वे शकों की सेना के साथ बलमित्र भानुमत्र की सेना को नहीं लेते । इतिहास साक्षी है कि शकों के साथ उज्जयिनी
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