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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग . [विक्रमादित्य अनुकरण करते हुए लाख के लाल रस से रंगे हए प्रियतमा के चरणों ने प्रियतम द्वारा किये गए चरण-संवाहन से तुष्ट होकर प्रियतम के हाथों मे लाख (लाख स्वर्णमुद्राओं के समान लाख का लाल रंग) दे डाला।
गाथा में वर्णित शृगाररस के अद्भुत श्लेष से यहां कोई प्रयोजन नहीं । यहां इस गाथा से यही बताना अभिप्रेत है कि ईसा की प्रथम शताब्दी में हए विद्वान् राजा हाल ने विक्रम की लोकप्रसिद्ध दानशीलता का उल्लेख किया है। गाथा सप्तशती में हाल ने अपने समय में प्रसिद्ध, चुनी हुई, चमत्कारपूर्ण गाथाओं का संग्रह किया था - इस तथ्य से यह प्रमाणित होता है कि उपरोक्त गाथाराजा हाल के समय से पूर्व की कोई प्रसिद्ध रचना है और हाल से बहुत पहले ही विक्रमादित्य की दानशीलता की यशोगाथाएं लोक में गुंजरित हो चुकी थीं। . __यहां यह भी उल्लेखनीय है कि 'गाथासप्तशती' के रचयिता महाराजा हाल के ही एक पूर्वज के हाथों विक्रमादित्य रणक्षेत्र में आहत हुए थे और उस शस्त्राघात के फलस्वरूप उज्जयिनी लौटने पर विक्रमादित्य की मृत्यु हुई थी।
३. सातवाहन वंशी राजा हाल के समकालीन विद्वान् गुणान्य ने पैशाची भाषा में "वृहत्कथा" नामक ग्रन्थ की रचना की थी। आज वह मूल ग्रंथ कहीं उपलब्ध नहीं है। सोमदेव भट्ट ने 'वृहत्कथा' का संस्कृत भाषा में रूपान्तर कर कथासरित्सागर की रचना की, जो प्राज उपलब्ध है। कथासरित्सागर के लम्बक ६, तरंग १ में विक्रमादित्य का विस्तार के साथ परिचय दिया हुआ है।
. "कथासरित्सागर" के लम्बक १८, तरंग १ के निम्नलिखित श्लोक में विक्रमादित्य की, महिमा का जिन शब्दों में गान किया गया है, उस प्रकार का सौभाग्य संभवतः श्री राम कृष्ण को छोड़ कर अन्य किसी राजा को प्राप्त नहीं हुप्रा हीगा :
. स पिता पितृहीनानामबंधूनां स बान्धवः ।
अनाथानां च नाथः सः, प्रजानां कः स नाभवत् ।। ४. 'भविष्यपुराण' में भी विक्रमादित्य का अधोलिखित रूप में उल्लेख उपलब्ध होता है :
शकानां च विनाशार्थमार्यधर्मविवृद्धये । जातः शिवाज्ञया सोऽपि, कैलाशात् मुह्यकालयात् ।। विक्रमादित्य नामानं, पिता कृत्वा मुमोह ह । तस्मिन्काले द्विजः कश्चिजयंतो नाम विश्रुतः ।। तत्फलं तपसा प्राप्तः, शक्तश्च स्वगृहं ययौ। जयंतो भर्तहरये, लक्ष स्वर्णेन वर्णयन् ।। भुक्त्वा भर्तहरिस्तत्र योगारूढ़ो वनं गतः । विक्रमादित्य एवास्य, भुक्त्वा राज्यमकंटकम् ॥
[भविष्य पुराण, सण्ड २, अध्याय २३]
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