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और विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : प्रायं नागहस्ती
५७५ सरल रीति से समझाया कि प्रत्येक साधु के मस्तिष्क में उनका स्पष्ट अर्थ अमिट रूप से अंकित हो गया। प्रतिदिन शास्त्रों की वाचना का क्रम चलता रहा । वज्रमुनि से शास्त्रों की वाचना ग्रहण करते समय प्रत्येक साधु ने अमृत तुल्य रसास्वादन की अनुभूति की।
__ कतिपय दिनों के पश्चात् आर्य सिंहगिरि पुनः वहां लौट आये । सब श्रमणों ने गुरुचरणों में भक्तिसहित अपने मस्तक झुकाये। गुरु ने अपने शिष्यों से प्रश्न किया- "कहो श्रमणो ! तुम्हारा प्रागमों का अध्ययन कैसा चल रहा है ?"
सब साधुनों ने एक साथ आनन्दातिरेक भरे सम्मिलित स्वर में उत्तर दिया- "गुरुदेव ! गुरुकृपा से बहुत सुन्दर, अतिसमीचीन । वाचना ग्रहण करते समय हमें परमानन्द की अनुभूति होती है। भगवन् ! अब सदा के लिये आर्य वज्र ही हमारे वाचनाचार्य रहें।"
असीम संतोष का अनुभव करते हुए आर्य सिंहगिरि ने कहा- "प्रत्यक्षानुभव से मैंने यह सब कुछ जान लिया था। इसी लिये इस बालकमुनि की अनुपम गुणगरिमा से तुम लोगों को अवगत कराने के लिये ही मैंने जानबूझ कर यहां से विहार किया था।"
अनेक प्रकार के तपश्चरण के साथ-साथ मुनि वज्र साधु-समूह को वाचना भी देते रहे और अपने गुरु के पास अध्ययन भी करते रहे। स्वल्प समय में ही आर्य वज्र ने अपने गुरु के पास जितना प्रागम-ज्ञान था वह सब ग्रहण कर लिया। आर्य सिंहगिरि ने तदनन्तर आर्य वज्र को अवशिष्ट श्रुतशास्त्र का अध्ययन कराने के लिये किसी सुयोग्य विद्वान् मुनि की सेवा में भेजने का विचार किया। विहारक्रम से एक दिन वे दशपुर नामक नगर में पहुंचे। वहां से उन्होंने प्रार्य वज्र को प्रवन्ती (उज्जयिनी) में विराजित दशपूर्वधर मार्य भद्रगुप्त के पास अध्ययनार्थ भेजा। गुरुप्राज्ञा को शिरोधार्य कर प्रार्य वज़ मुनि उन विहार करते हुए अवन्ती नगर पहुंचे । संध्याकाल हो जाने के कारण प्रार्य वन ने रात्रि नगर के बाहर ही एक स्थान में बिताई।
प्रातःकालीन आवश्यक कार्यों को सम्पन्न करने के पश्चात् मुनि वज़ दशपूर्वधर प्राय भद्रगुप्त के स्थान की पोर प्रस्थित हुए। उस समय प्रार्य भद्रगुप्त ने अपने शिष्यों से कहा- "वत्सो! मैंने रात्रि में एक स्वप्न देखा कि खीर से भरे हुए मेरे पात्र को एक सिंह-शावक ने माकर पी लिया एवं जिहवा से चाट लिया है।' इसं स्वप्नदर्शन से ऐसा प्रतीत होता है कि दश पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने का इच्छुक कोई महान् बुद्धिशाली व्यक्ति पाने ही वाला है।"
प्रार्य भद्रगुप्त ने अपनी बात समाप्त की ही थी कि मनि वन ने उनके सम्मुख उपस्थित हो भक्ति सहित उन्हें वन्दन-नमन के पश्चात् अपने मागमन का ' सो मागंतूड सीहोयएण पीतो मेहिनोय। [पावश्यक मलय, पत्र ३८६ (१)].
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