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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ श्रार्य वज्र की प्रतिभा
संयम का समीचीन रूप से पालन करती हुई वह आर्या रुक्मिणी भी साध्वियों के साथ विचरण करने लगी ।
यद्यपि आर्य वज्रस्वामी के पूर्वभव के मित्र जृंभक देवों ने उन्हें प्रसन्न हो गगनगामिनी विद्या दी थी पर स्वयं उन्होंने अपने अथाह श्रागमज्ञान के सहारे प्राचारांग सूत्र के महापरिज्ञा अध्ययन से आकाशगामिनी विद्या को ढूंढ निकाला और भयंकर संक्रान्तिकाल में अनिवार्य आवश्यकता पड़ने पर भूतहितानुकम्पा से प्रेरित हो उस मगनगामिनी विद्या का प्रयोग कर अनेक मानवों के प्राणों की रक्षा की।
इस प्रकार अनेक विद्यासम्पन्न प्राचार्य वज्र अपने ग्राचार्यकाल में विचरते हुए भारत के पूर्वी भाग से उत्तर प्रदेश में पधारे। वहां भारत के समस्त उत्तरी भाग में घोर अनावृष्टि के कारण भीषण दुष्काल पड़ा । खाद्य सामग्री के प्राभव के कारण प्रभाव - अभियोगों से संत्रस्त प्रजा में सर्वत्र हाहाकार व्याप्त हो गया । तृण-फल- पुष्पादि के प्रभाव में पशुपक्षिगरण और अन्न के प्रभाव में आबालवृद्ध मानव भूख से तड़प-तड़प कर कराल काल के अतिथि बनने लगे। उस दैवी प्रकोप से संत्रस्त संघ आचार्य वज्रस्वामी की शरण में आया और त्राहि-त्राहि की पुकार करने लगा ।
आचार्य वज्रस्वामी ने संघ की करुण पुकार सुन कर दया से द्रवित हो विशाल 'जनसमूह की प्रारणरक्षार्थ, समष्टि के हित के साथ-साथ धर्महित की दृष्टि से, साधुओं के लिए वर्जित होते हुए भी आकाशगामिनी विद्या के प्रयोग से संघ को माहेश्वरीपुरी में पहुंचा दिया। वहां का राजा बौद्धधर्मानुयायी होने के कारण जैन उपासकों के साथ विरोध रखता था पर आर्य वज्र के प्रभाव से वह भी श्रावक बना और इससे धर्म की बड़ी प्रभावना हुई ।
दुष्कालों की परम्परा केवल भारत में ही नहीं, अन्य अनेक देशों में भी प्राचीन काल से चली आ रही है । दुष्कालों ने मानवता को समय-समय पर बड़ी बुरी तरह से झकझोरा है । दुष्कालों के दुष्प्रभाव के कारण मानव - संस्कृति, शताब्दियों के अथक परिश्रम और अनुभव से उपार्जित आध्यात्मिक ज्ञान तथा मानवतामूलक धर्म की पर्याप्त क्षति हुई है परन्तु इस प्रकार की संकट की घड़ियों में भी वज्रस्वामी जैसी महान आत्माओं ने अपने अपरिमेय प्रात्मिक बल से संयम और प्राध्यात्मिक ज्ञान की ज्योति को प्रदीप्त रखा। इसी प्रकार के प्राध्यात्मिक नेताओं के कृपाप्रसाद से हमारा धर्म, प्राध्यात्मिक ज्ञान और संस्कृति आदि शताब्दियों से भीषण दुष्कालों, राज्यक्रान्तियों, धर्मविप्लवों की थपेड़ें खाने के उपरान्त भी आज तक जीवित रह कर मानवता को अनुप्राणित करते आ रहे हैं । प्राचार्य वज्रस्वामी की यह आन्तरिक अभिलाषा थी कि श्रुतगंगा की पावन धारा अबाध एवं अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रहे किन्तु दश पूर्वी का ज्ञान ग्रहण करने वाले किसी सुयोग्य पात्र के प्रभाव में उन्हें अपने जीवन के
[ प्रभावक चरित्र ]
" महापरिज्ञाध्ययनादाचा रांगान्तर स्थितात् ।
श्री व गोद्धृता विद्या, तदागगनगामिनी ।।
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