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और विनयशीलता ]
दशपूर्वर- काल : श्रार्यं नागहस्ती
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गई। उसने प्रण किया "यदि आर्य वज्र मेरे पति हों तो मुझे संसार में रहना है अन्यथा भोगों का पूर्ण रूपेण परित्याग कर देना है ।' कहा जाता है कि रुक्मिणी ने अपनी सखियों के माध्यम से अपने पिता को कहलवाया कि उसने वज्रस्वामी को अपने पति के रूप में वरण कर लिया है अतः यदि वज्रस्वामी के साथ उसका विवाह नहीं किया गया तो वह निश्चित रूप से अग्नि में प्रवेश कर आत्मदाह कर लेगी ।
पिता अपनी पुत्री की दृढ़प्रतिज्ञता एवं हठ से भलीभांति परिचित था प्रत: वह पुत्री की सहेलियों के मुख से उसके दृढ निश्चय की बात सुन कर बड़ा घबराया । बहुत सोच-विचार के पश्चात् अनेक बहुमूल्य रत्न और अपनी अनुपम रूपवती पुत्री को अपने साथ ले कर वह उस उद्यान में पहुँचा जहाँ कि आचार्य वज्रस्वामी अपने शिष्यों सहित विराजमान थे। श्रेष्ठी धन ने वज्रस्वामी को नमस्कार करने के पश्चात् निवेदन किया- "आचार्यप्रवर ! मेरी यह परम रूपगुणसम्पन्ना कन्या आपके गुणों पर मुग्ध हो श्रापको अपने पति के रूप में वरण करना चाहती है । मेरे पास एक अरब रौप्यक का धन है । अपनी कन्या के साथ मैं वह सब धन आपको समर्पित करना चाहता हूँ । उस धन से प्राप जीवन भर विविध भोगोपभोग, दान, उपकार आदि का आनन्द लूट सकते हैं । आप कृपा कर मेरी इस कन्या के साथ पारिग्रहरण कर लीजिये । २
प्राचार्य वज्र ने सहज शान्त सस्मित स्वर में कहा - "भद्र ! तुम वस्तुतः अत्यन्त सरल प्रकृति के हो। तुम स्वयं तो सांसारिक बन्धनों में बन्धे हुए हो ही, दूसरों को भी उन बन्धनों में आबद्ध करना चाहते हो। तुम नहीं जानते कि संयम के मार्ग में कितना अद्भुत अलौकिक श्रानन्द है । वह पथ कण्टकाकीर्ण भले ही हो पर इसका सच्चा पथिक संयम और ज्ञान की मस्ती में जिस श्रनिर्वचनीय श्रानन्द का अनुभव करता है, उसके समक्ष यह क्षणिक पौद्गलिक सुख नितान्त नगण्य, तुच्छ और सुखाभास मात्र हैं । संयम से प्राप्त होने वाला प्रनिर्वचनीय आध्यात्मिक आनन्द अमूल्य रत्नराशि से भी अनन्तगुरिणत बहुमूल्य है । तुम कल्पवृक्षतुल्य संयम के सुख की तुच्छ तृरण तुल्य इन्द्रिय-सुख से तुलना करना चाहते हो । सौम्य ! मैं तो निस्परिग्रही साधु है । मुझे संसार की किसी प्रकार की सम्पदा अथवा विषय-वासना की कामना नहीं है । यदि यह तुम्हारी कन्या वास्तव में मेरे प्रति अनुराग रखती है, तो मेरे द्वारा स्वीकृत परम सुखकर संयममार्ग पर यह भी प्रवृत्त हो जाय ।"
प्राचार्य वज्र की त्याग एवं तपोपूत विरक्तिपूर्ण सयुक्तिक वारणी सुन कर श्रेष्ठिकन्या रुक्मिणी के अन्तर्मन पर माया हुआ प्रज्ञान का काला पर्दा हट गया । उसके प्रतक्षु उन्मीलित हो गये । उसने तत्काल संयम ग्रहरण कर लिया प्रौर 1 जइ सो मम पति होज्जा, ताऽहं भोगे भुजिस्सं । इयरहा श्रलं भोगेहिं
२ जो कन्नाइ धणेण य निमंतिम्रो जुम्बरणम्मि नयरम्मि कुसुमनामे, तं वइररिसि
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[ आवश्यक मलयगिरी, पत्र ३८६ ( २ ) ] गिहवणा । नम॑सामि ||७६८ |
[प्रावश्यक मलय, पत्र ३६० (१)]
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