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पौर विनयशीलता] दशपूर्वधर-काल : मार्य नागहस्ती स्वर्गगमन आदि का विवरण सुनाते हुए कहा कि उस मुनि के स्वर्गगमन के उपलक्ष में देवगण महोत्सव मना रहे हैं।
नितान्त नव-वय के उस मुनि के अद्भुत आत्मबल से प्रेरणा लेकर सभी मुनि उच्च अध्यवसायों के साथ प्रात्मचिंतन में तल्लीन-एकाग्र हो गये। उन मुनियों के समक्ष व्यन्तर देवी द्वारा अनेक प्रकार के उपसर्ग उपस्थित किये गए पर वे सभी मुनि उन देवी उपसर्गों से किंचित्मात्र भी विचलित नहीं हए। वनस्वामी ने अपने उन सभी मुनियों के साथ समीपस्थ दूसरे पर्वत के शिखर पर जाकर भूमि का प्रतिलेन किया तथा वहां उन्होंने अपने-अपने आसन जमाये ।' वहां प्राध्यात्मिक चिन्तन (समाधि भाव) में तल्लीन उन सभी साधुनों ने अपनीअपनी आयु पूर्ण कर स्वर्गगमन किया। .
अनशनस्थ अपने सब शिष्यों के देहावसान के पश्चात् आर्य वज्रस्वामी ने भी एकाग्र एवं निष्कम्प ध्यान में लीन हो अपने प्राण विसर्जित किये। इस प्रकार जिनशासन की महान विभूति आर्य वज्रस्वामी का वीर नि० सं० ५८४ में स्वर्गवास हुआ। प्राचार्य वज्रस्वामी के स्वर्गगमन के साथ ही दशम पूर्व और चतुर्थ संहनन (अर्धनाराच संहनन) का विच्छेद हो गया ।।
प्राचार्य वचस्वामी का ज्ञान कितना अगाध था, इसका मापदण्ड आज के युग में हमारे पास नहीं है । जिस पुण्यात्मा वज्र स्वामी ने जन्म के तत्काल पश्चात् जातिस्मरण ज्ञान प्राप्त हो जाने के कारण स्तनंधयी शैशवावस्था में स्तनपान के स्थान पर साध्वियों के मुख से उच्चरित तीर्थेश्वर की वाणी का पान करते हुए एकादशांगी को कण्ठस्थ कर लिया हो और जिन्होंने पोगण्डावस्था से ही संसार के समस्त प्रपंचों-झमेलों से सर्वथा दूर रहते हुए निरन्तर समर्थ गुरुपों के सान्निध्य में रह कर प्रहनिश ज्ञानाराधना की हो, उनके निस्सीम ज्ञान का थाह पाने में कल्पना भी ऊंची से ऊंची उडाने भरती हुई अन्ततोगत्वा थक कर निराश हो जायगी । ऐसी ही महान् विभूतियों के तपोपूत त्याग-विराग और ज्ञान की प्राभा से शताब्दियों के तिमिराच्छन्न अतीत के उपरान्त भी साधक आज आलोक का लाभ कर रहे हैं।
प्राचार्य वज्रस्वामी ने ५० वर्ष तक विशुद्ध संयम का पालन करते हए धर्म का प्रसार किया। वस्तुतः वे जन्मजात योगी थे। उनकी वक्त त्वशैली हृत्तलस्पर्शी, प्रभावोत्पादक और अत्यन्त प्राकर्षक थी। उन महान् प्राचार्य की स्मृति को चिरस्थायी बनाने के लिए वीर नि० सं० ५८४ में उनके स्वर्गगमन के पश्चात् बज्जीशाखा की स्थापना की गई।
वज्रस्वामी के शिष्यों द्वारा प्रचालित वज्जीशाखा के अतिरिक्त उनके प्रशिष्यों से जो शाखाएं प्रचलित हुई, वे इस प्रकार हैं :' यामो ध्यात्वेति ते जग्मुस्तदासन्नं नगान्तरम् ॥१७२।। परि० पर्व, २ दुष्कर्मावनिभृढणे, श्री वजे स्वर्गमीयुषि । विच्छिन्न दशमं पूर्व तुर्य संहननं तदा ॥१७६।।
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