________________
५८४
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दि० परम्परा में वजमुनि जब उसने देखा कि मुनि सोमदेव ने घर चलना तो दूर, अपने पुत्र की भोर मांख उठा कर भी नहीं देखा है तो उसने क्रुद्ध हो आक्रोशपूर्ण स्वर में कहा- "मो मेरे मन को जला डालने वाले पाषाण हृदय मूर्ख वंचक ! इस दिगम्बर वेष को स्वेच्छा से छोड़ कर मेरे साथ घर चलता हो तो चल, अन्यथा सम्हाल अपने इस पुत्र को।"'
इतना कहने पर भी मुनि को निश्चल भाव से ध्यानमग्न देख कर यज्ञदत्ता ने अपने उस कुसुमकोमल नवजात पुत्र को मुनि के चरणों पर लिटा दिया और स्वयं अपने घर की ओर लौट गई।
सूर्य के प्रचण्ड ताप से शिला जल रही थी। पैरों पर से प्रतप्त शिला पर गिरने से बालक का कहीं प्राणान्त न हो जाय, इस करुणापूर्ण प्राशंका से मनि सोमदेव अपने पैरों को विष्टर की तरह बनाये अचल मुद्रा में खड़े रहे। मुनि ने मन ही मन दृढ़ संकल्प किया कि जब तक वह उपसर्ग समाप्त नहीं हो जायगा तब तक आहारादि ग्रहण करना तो दूर, शरीर को किंचित्मात्र भी हिलाएंगेडुलाएंगे तक नहीं । २ मुनि इस प्रकार का अभिग्रह कर पुनः ध्यानमग्न हो गये।
यज्ञदत्ता के लौटने के थोड़ी ही देर पश्चात् भास्करदेव नामक विद्याधरराज अपनी पत्नी के साथ मुनिदर्शन हेतु वहां पहुंचा। जब उसने सुन्दर, स्वस्थ और तेजस्वी शिशु को मुनि के पैरों पर लेटे हुए देखा तो मुनि वन्दन के पश्चात् उसने उसे उठा कर अपनी पत्नी की गोद में देते हुए कहा - "धर्मिष्ठे ! लो। मुनिदर्शन के तात्कालिक सुखद फल के रूप में हम सन्ततिविहीनों को यह पुत्र मिल गया है।" सूर्य की प्रखर रश्मियों की ज्वालामाला का उस शिशु पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा था, इस कारण विद्याधरदम्पती ने बालक का नाम वज़ रखा । उन्होंने वज्र को अपना पुत्र घोषित करते हुए बड़े दुलार के साथ उसका लालन-पालन किया। शिक्षायोग्य वय में वज्र को समुचित शिक्षा दिलाने तथा चमत्कारपूर्ण विद्याएं सिखाने की व्यवस्था की गई।
दिगम्बर परम्परा में श्वेताम्बर परम्परा की तरह आर्य वज्र का साधुसंघ में रहना नहीं माना गया है। वृहत्कथाकोश के अनुसार पवनवेगा नाम की एक विद्याधर कन्या के साथ और उपासकाध्ययन के अनुसार इन्दुमती और पवनवेगा नामक दो कन्याओं के साथ वज्रकुमार का विवाह होना माना गया है।
उपरोक्त दोनों ग्रन्थों में बताया गया है कि अनेक वर्षों तक गार्हस्थ्यजीवन का सुखोपभोग करने के पश्चात् एक दिन वज्रकुमार को अपने मित्रजनों से जब यह विदित हुया कि भास्करदेव उसके पिता नहीं अपितु पालक मात्र है । वस्तुतः ' यदीमं दिगम्बर प्रतिच्छन्दमवच्छिद्य स्वच्छयच्छयागच्छसि तदागच्छ । नो चेद्गृहाणेनमात्मनो नन्दनम् ।
[उपासकाध्ययन] २ उपमर्गा महानेप यदि क्षेमेण यास्यति । तदाहारशरीरादेः प्रवृत्तिर्मे भविष्यति ।।३१।।
[वृहत्कथाकोश, पृ० २३]
For Private & Personal Use Only
Jain Education International
www.jainelibrary.org