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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [दश पूर्व. वि. दि. मान्यता माने गये है। परन्तु दोनों परम्परामों द्वारा माने गये श्रुतकेवलियों के नामों में तथा सत्ताकाल में थोड़ी भिन्नता है। केवल पांचवें श्रुतकेवली आचार्य भद्रबाहु के नाम के सम्बन्ध में दोनों परम्पराओं का मतैक्य है।
श्वेताम्बर परम्परा में प्रार्य प्रभव, आर्य शय्यंभव, प्रार्य यशोभद्र, पार्य संभूत विजय और मार्य भद्रबाहु - इस प्रकार ५ श्रुतकेवली और इनका श्रुतकेवलीकाल १०६ वर्ष का माना गया है।
जबकि दिगम्बर परम्परा में विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु इन ५ श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष का समय माना गया है ।
'श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य १० पूर्वधरों का परिचय दिया जा चुका है। श्वेताम्बर परम्परा द्वारा ६४ वर्ष का केवलिकाल, १०६ वर्ष का श्रुतकेवलिकाल और ४१४ वर्ष का दशपूर्वधर-काल माना गया है । केवलिकाल के ६४ वर्ष, श्रुतकेवलिकाल के १०६ वर्ष और दशपूर्वधरकाल के ४१४ वर्ष-ये कुल मिला कर ५८४ वर्ष होते हैं। इस प्रकार श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार वीर नि० सं० ५८४ तक १० पूर्वो का ज्ञान विद्यमान रहा।
किन्तु दिगम्बर परम्परा की मान्यतानुसार भगवान् महावीर के निर्वाण के अनन्तर ६२ वर्ष तक केवलिकाल, तत्पश्चात् १०० वर्ष तक श्रुतकेवलिकाल और तदनन्तर १८३ वर्ष तक दशपूर्वधरों का काल रहा। इस प्रकार दिगम्बर मान्यतानुसार वीर नि० सं० ३४५ तक ही १० पूर्वो का ज्ञान विद्यमान रहा। दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य १० पूर्वधरों के नाम इस प्रकार हैं:
१. विशाखाचार्य, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय. ५. नागसेन, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेरण, ८. विजय, ६. बुद्धिल, १०. गंगदेव और ११. धर्मसेन । इन ग्यारहों प्राचार्यों को गुणभद्राचार्य ने द्वादशांग के अर्थ में प्रवीण तथा दश पूर्वधर बताया है।'
___प्रा. नागहस्ती एवं पा. वज के समय की राजनैतिक स्थिति
यह पहले बताया जा चुका है कि वीर नि० सं० ४७० से ५३० तक देश में विक्रमादित्य का शासन रहा.। विक्रमादित्य के शासनकाल में भारत राजनैतिक, मार्थिक सामाजिक, बौद्धिक एवं सैनिक शक्ति की दृष्टि से सबल, सुसमृद्ध एवं समुन्नत रहा । विक्रमादित्य के पश्चात् उसके पुत्र विक्रमसेन के शासनकाल में भी साधारणतया देश समृद्ध और सबल रहा । विक्रमसेन के शासन के अन्तिम दिनों में शकों के पुनः प्राक्रमण होने प्रारम्भ हुए और विदेशी शकों ने भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश के कई क्षेत्रों पर अपना आधिपत्य जमा लिया। विक्रमसेन की मृत्यु के पश्चात् शकों के आक्रमणों का दबाव बढ़ता ही गया ।
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'बादशांगापं-कुशला, दशपूर्वधराश्च ते।
[उत्तर पुराण, पर्व ७६, श्लो. ५२३]
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