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सामान्य पूर्वधर - काल
वीर नि० सं० १७० से ५८४ तक के दशपूर्वधरकाल के आचार्यों का परिचय दिया जा चुका है। वीर नि० सं० ५८४ से वीर नि० सं० १००० तक सामान्य पूर्वधरकाल रहा । इस अवधि में आर्य रक्षित सार्द्धनव पूर्वो के ज्ञाता प्राचार्य हुए। प्रार्य रक्षित के पश्चात् भी पूर्वज्ञान की क्रमशः परिहानि होती रही । आरक्षित के पश्चात् होने वाले आचार्यों में कौन-कौन से आचार्य कितने-कितने पूर्वी के ज्ञाता रहे, एतद्विषयक कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । ऐसी दशा में निश्चित रूप से तो यही कहा जा सकता है कि वीर नि० सं० १००० तक सम्पूर्ण रूपेण १ पूर्व का और शेष पूर्वो का प्रांशिक ज्ञान विद्यमान रहा ।
२३. रेवतीनक्षत्र - वाचनाचार्य
२४. रेवतीमित्र - युगप्रधानाचार्य
आर्य नागहस्ती के पश्चात् श्रार्यं रेवतीनक्षत्र वाचनाचार्य हुए। वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और युगप्रधानाचार्य रेवतीनक्षत्र एक ही श्राचार्य थे अथवा भिन्न-भिन्न, इस प्रश्न का स्पष्टीकरण करने वाला कोई प्रामाणिक उल्लेख उपलब्ध नहीं होता । इन दोनों ग्राचार्यों के नाम में पर्याप्त साम्य होने के कारण प्रायः प्रत्येक व्यक्ति को यह भ्रान्ति हो सकती है कि रेवतीनक्षत्र और रेवतीमित्र एक ही श्राचार्य के दो नाम हैं, जो वाचनाचार्य भी थे और युगप्रधानाचार्य भी । किन्तु वाचनाचार्य श्रौर युग प्रधानाचार्य इन दोनों परम्पराम्रों के प्राचार्यों के काल के सम्बन्ध में गम्भीरतापूर्वक विचार करने पर स्पष्टतः यह अनुमान होने लगता है कि वस्तुतः वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र और युगप्रधानाचार्य रेवतीमित्र भिन्न-भिन्न में हुए दो भिन्न प्राचार्य थे ।
समय
जिस प्रकार पादलिप्त के गुरू एवं आर्य रक्षित के समकालीन वाचनाचार्य आर्य नागहस्ती और आर्य वज्रसेन के शिष्य युगप्रधानाचार्य प्रार्य नागहस्ती ( नागेन्द्र) के बीच काल का पर्याप्त व्यवधान होना सिद्ध किया जा चुका है, ठीक उसी प्रकार ब्रह्मद्वीपकसिंह के शिष्य श्रार्यं रेवतीनक्षत्र से नागेन्द्र के शिष्य आर्य रेवतीमित्र भी पर्याप्त काल पश्चात् होने चाहिये ।
आर्य वज्रसेन के समय के आसपास होने के कारण वाचनाचार्य रेवतीनक्षत्र का स्वर्गगमन अधिक से अधिक वीर निर्वारण सं० ६४०-६५० के आसपास होना चाहिये जबकि युगप्रधानाचार्य श्रार्य रेवतीमित्र का स्वर्गगमन वीर नि० सं०.७४८० में माना गया है, जो आर्य 'रेवतीनक्षत्र के स्वर्गगमन से लगभग १०० वर्ष पश्चात् का ठहरता है ।
प्रायं रेवतीनक्षत्र की स्तुति करते हुए प्राचार्य देववाचक ने भी कहा है : "रेवतीनक्षत्र का वाचकवंश वर्द्धमान् हो ।" आचार्य देववाचक ने प्रार्य वड्ढउ वायगवंसो, रेवइनक्खत्त नामारणं ।
[ नंदी - स्थविरावली ]
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