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दिगम्बर परम्परा में वज्रमुनि ] दशपूर्वघर-काल : प्रायं नागहस्ती
उसके पिता तो सोमदेव हैं, जो उसके जन्म से पहले ही मुनि बन चुके हैं। वस्तुस्थिति से परिचित होते ही वज्रकुमार ने प्रतिज्ञा कर डाली कि वह अपने पिता के दर्शन किये बिना अन्न-जल ग्रहण नहीं करेगा । भास्करदेव तत्काल वज्रकुमार को साथ लेकर मुनि सोमदेव के दर्शनों के लिये प्रस्थित हुआ । दर्शन-वन्दन के पश्चात् मुनि के त्याग विरागपूर्ण उपदेश को सुन कर वज्रकुमार को संसार से विरक्ति हो गई और उन्होंने उसी समय सोमदेव मुनि के पास निग्रंथ श्रमरणदीक्षा ग्रहण कर ली ।
श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराम्रों में आर्य वज्र को चारणऋद्धिसम्पन्न मुनि माना गया है और दोनों परम्परात्रों के मध्ययुगीन कथासाहित्य में उनके द्वारा आकाशगामिनी विद्या के अद्भुत चमत्कारपूर्ण कार्यों से जिनशासन की महती प्रभावना किये जाने के उल्लेख उपलब्ध होते हैं ।
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में आर्य वज्र के प्रगुरू का नाम सुमित्र और गुरु का नाम सोमदेव बताया गया है जब कि श्वेताम्बर परम्परा इन्हें जातिस्मरणज्ञानधारी प्रार्य सिंहगिरि का शिष्य मानती है। नाम, स्थान आदि विषयक कतिपय विभिन्नताओं के उपरान्त भी आर्य वज्र के पिता द्वारा वज्र के जन्म से अनुमानत: ६ मास पूर्व ही प्रव्रज्या ग्रहण करने, माता द्वारा उन्हें उनके पिता को दे दिये जाने, आर्य वज्र के गगनविहारी होने, जैनों के साथ बौद्धों द्वारा की गई धार्मिक उत्सव विषयक प्रतिस्पर्धा में श्रार्य वज्र द्वारा जैन धर्मावलम्बियों के मनोरथों की पूर्ति के साथ जिन शासन की महिमा बढ़ाने आदि श्रार्य वज्र के जीवन की घटनाओं एवं सम्पूर्ण कथावस्तु की मूल आत्मा में दोनों परम्पराओं की पर्याप्त साम्यता है, जो यह मानने के लिये आधार प्रस्तुत करती है कि प्रार्य वज्र के समय तक जैन संघ में पृथकतः श्वेताम्बर तथा दिगम्बर - इस प्रकार का भेद उत्पन्न नहीं हुआ था ।
दोनों परम्पराओं के मान्य ये मुनि निश्चित रूप से वे ही वज्रमुनि हैं, जो वीर निर्वाण की छठी शताब्दी में हुए प्रार्य रक्षित के विद्यागुरु थे । परम्परा भेद के प्रकट होने का इतिहास भी इसी बात को प्रमाणित करता है। कारण कि श्वेताम्बर परम्परा की मान्यतानुसार श्वेताम्बर - दिगम्बर परम्परा का स्पष्ट भेद आर्य वज्र के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ६०६ में और दिगम्बर परम्परा मान्यतानुसार वीर नि० सं० ६०६ में माना गया है ।
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दशपूर्वर-विषयक दिगम्बर मान्यता
यह पहले बताया जा चुका है कि दिगम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में भगवान् महावीर के निर्वाण पश्चात् ६२ वर्ष का तथा कुछ ग्रन्थों में ६४ वर्ष का केवलिकाल माना गया है ।
इन्द्रभूति, सुधर्मा र जम्बूस्वामी इन ३ अनुबद्ध केवलियों के पश्चात् दिगम्बर परम्परा में भी ५ श्रुतकेवली अर्थात् एकादशांगी और १४ पूर्वी के ज्ञाता
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