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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [आर्य वज्र की प्रतिभा , प्रयोजन बताते हुए श्रुतशास्त्र का अध्यापन करने की प्रार्थना की। शरीर की चेष्टायों और लक्षणों से वज्र मुनि को श्रुतशास्त्र के ज्ञान का सुयोग्य पात्र समझ कर आर्य भद्रगुप्त ने उन्हें पूर्वज्ञान की वाचनाएं देना प्रारम्भ किया। मुनि वज्र को दश पूर्वो का साथै सम्पूर्ण अध्यापन कराने के पश्चात् आर्य भद्रगुप्त ने पुनः आर्य सिहगिरि की सेवा में लौटने की अनुज्ञा प्रदान की। वज्र मुनि अपने गुरु आर्य सिंहगिरि की सेवा में उपस्थित हुए। प्राचार्य ने प्रसन्न हो दशपुर में आकर उन्हें वाचक पद से सुशोभित किया।
अपने प्रिय शिष्य वज्रमुनि को दशपूर्वधर के रूप में देख कर आर्य सिंहगिरि ने परम संतोष का अनुभव किया और अपनी आयु का अन्तिम समय सन्निकट समझ कर उन्होंने वी०नि० सं०५४८ में अपने शिष्य दशपूर्वधर पार्य वज्र को अपने उत्तराधिकारी के रूप में प्राचार्य पद पर प्रतिष्ठापित किया। आचार्य प्रभाचन्द्रसूरि की मान्यतानुसार वज्र स्वामी के पूर्वभव के मित्र गुह्यकों ने प्राचार्य सिंहगिरि द्वारा आर्य वज्रस्वामी को प्राचार्यपद दिये जाने के अवसर पर बड़ा अद्भुत महोत्सव किया। उस समय आचार्य वज्र ५०० साधुओं के साथ विचर रहे थे।
आर्य वज्रस्वामी ने भी अपने गुरु सिंहगिरि की अन्त समय तक बड़ी लगन के साथ सेवा-शुश्रूषा की। गुरुदेव के स्वर्गगमन के पश्चात् प्राचार्य वज्रस्वामी ने बड़ी योग्यता के साथ संघ का संचालन करते हुए जिनशासन की सेवा की। विभिन्न क्षेत्रों में धर्म का प्रचार करते हुए वे एक समय पाटलिपुत्र पधारे और नगर के बाहर एक उद्यान में ठहरे । आपके तात्विक उपदेशों से अपने मानस को और दर्शनों से नेत्रों को पवित्र करने के लिये हजारों की संख्या में नरनारीवृन्द उद्यान में उपस्थित हुए। आपकी अतीव रोचक एवं अद्भुत व्याख्यानशैली से प्रबुद्ध हो अनेक नरनारियों ने सम्यक्त व, व्रत, नियमादि ग्रहण कर अपना आत्मकल्याण किया।
पाटलिपुत्र नगर के निवासी धन नामक एक अतुल सम्पत्तिशाली श्रेष्ठी की रुक्मिणी नाम की कन्या ने अपनी यानशाला में विराजित साध्वियों से आर्य वज्र के गुणों की प्रशंसा सुनी। उसने एक दिन प्राचार्य वज्रस्वामी के दर्शन किये और उनका व्याख्यान सुना। जब उसने अखण्ड ब्रह्मचर्य के अपूर्व तेज से प्रदीप्त पार्य वज्र के सौम्य मुखमण्डलं को देखा और उपदेश देते समय उनकी सुधासिक्त मधुर वाणी को सुना तो श्रेष्ठिकन्या रुक्मिणी आचार्य वज्र पर प्राणपण से मुग्ध हो ' (क) जस्स अणुनाए वायगत्तणे दसपुरम्मि नयरम्मि ।
.. देवेहि कया महिमा, पयारणुसारि नमसामि ।। ७६७ [प्राव.] (ख) वज्रप्राग्जन्मसुहृदो ज्ञानाद् विज्ञाय ते सुराः ।
तस्याचार्यप्रतिष्ठायां चक्रुरुत्सवमद्भुतम् ॥ १३२ [प्रभावकचरित्र, पृ० ६] २ वयरसामि वि पंचहि अरणगारसयेहिं संपरिवुडो विहरइ । २
[प्रावश्यक मलय, ३८६ (२)]
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