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प्रायव
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दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती इस प्रकार जब उन्हें यह निश्चय हो गया कि दी जाने वाली भिक्षा वस्तुतः सदोष है, तो मुनि वज्र ने अस्वीकृतिसूचक सस्मित स्वर में उन मानववेषधारी देवों से कहा - "धुसदो! यह कूष्माण्डपाक देवपिण्ड होने के कारण श्रमणों के लिए अग्राह्य है।"
वज्रमुनि के विलक्षण बुद्धिकौशल को देखकर वे जंभकदेव बड़े चकित एवं प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर वज्रमुनि को भक्तिपूर्वक वन्दन किया और उनके विशुद्ध श्रमणाचार के लिए उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए वे अपने स्थान को लौट गये ।
कालान्तर में उन्हीं जंभक देवों ने एक बार पुनः वज्रमूनि की परीक्षा लेने की ठानी। एक दिन ग्रीष्मकालीन मध्याह्न की चिलचिलाती धूप में वज्रमुनि भिक्षाटन कर रहे थे। परीक्षा के लिए उपयुक्त अवसर समझ कर जंभक देवों ने अपनी वैक्रियशक्ति से सद्गृहस्थों का रूप बना कर देवमाया द्वारा रचित अपने घर से वज्रमूनि को भिक्षा ग्रहण करने की प्रार्थना की। वज्रमुनि ने भिक्षार्थ घर में प्रवेश किया। गृहस्थवेषधर मुंभकों ने मिष्टान्न (फैनियों) से भरा थाल मुनि के समक्ष प्रस्तुत करते हुए उन्हें ग्रहण करने की अभ्यर्थना की। शरत्काल में बनाये जाने वाले मिष्टान्न को मध्य-ग्रीष्मर्तु में देख कर वज्रमुनि ने दीयमान वस्तु तथा दाता आदि के सम्बन्ध में बड़ी बारीकी से समीचीन रूपेण पर्यवेक्षण किया और उस भिक्षा को देवपिण्ड बताते हुए अस्वीकार कर दिया। वज्रमुनि की विशुद्ध प्राचारनिष्ठा एवं भिक्षान्न की पूर्ण गवेषणा से प्रसन्न होकर उन्होंने वज्रमनि को आकाशगामिनी - विद्या प्रदान की। आवश्यक नियुक्ति में महापरीक्षा अध्ययन से भी प्रार्य वज्र द्वारा प्राकाशगामिनी विद्या प्राप्त करना बताया गया है ।
आर्य वज्र बाल्यकाल से ही बड़े ज्ञान रसिक और सेवावृत्ति वाले थे। वे अल्प समय में ही अपने शम, दम, विनय और गुणग्राहकता आदि अंनुपम गुणों के कारण गुरुदेव और अन्य सभी श्रमणों के प्रेमपात्र बन गये । गुरुदेव के पास उन्होंने अङ्ग शास्त्र के ज्ञान को पूर्ण कर उनके गूढ रहस्यों को हृदयंगम किया।
पार्य वज्र की प्रतिमा और विनयशीलता उपरिवरिणत घटना के दूसरे ही दिन जब प्रार्य सिंहगिरि शौचनिवृत्त्यर्थ जंगल की ओर एवं अन्य सभी साधु गोचरी अथवा अन्य आवश्यक कार्यों के लिए उपाश्रयस्थल से बाहर गये हुए थे, उस समय एकान्त पाकर वज्रमूनि के मन में बालसुलभ चापल्य प्रादुर्भूत हुआ। उन्होंने सभी साधुओं के विटनों (वस्त्रों) को मंडलाकार में रखा और उनके मध्य भाग में बैठ कर क्रमशः अंग और पूर्वो की वाचना देने लगे। धाराप्रवाह घनरवगम्भीर स्वर में प्रार्य वज्र द्वारा शास्त्रों की वाचना का क्रम चल रहा था, ठीक उसी समय आर्य सिंहगिरि जंगल से लौटे ।
आर्य वज्र की ध्वनि को पहिचान कर आर्य सिंहगिरि द्वार के पास दीवार की प्रोट। में खड़े रह गये । बालक मुनि के मुख से शास्त्र के एक-एक सूत्र का अतीव स्पष्ट
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