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श्रार्यं वज्रस्वामी ]
दशपूर्वघर - काल : श्रार्यं नागहस्ती
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न्यायाधिकारियों ने दोनों पक्षों से पूर्ण जानकारी की और इस जटिल मामले को निर्णय के लिये राजा के समक्ष रखा। दोनों पक्षों के मुख से क्रमश: वालक को देने और लेने की स्वीकारोक्ति सुन कर राजा सहित न्यायाधीश बड़े असमंजस में पड़ गये कि एक ओर तो माता अपने पुत्र को प्राप्त करने की मांग कर रही है । दूसरी ओर स्वयं सुनन्दा द्वारा स्वेच्छा से अपना पुत्र उस मुनि को दिया जा चुका है, जो उस पुत्र का जनक और सुनन्दा का पति रहा है । साधु को दिये जाने के कारण वह बालक संघ का हो चुका। संघ वस्तुतः सर्वोपरि है क्योंकि तीर्थंकरों ने भी संघ को सम्मान दिया है । अन्ततोगत्वा बहुत सोच-विचार के पश्चात् राजा ने यह निर्णय दिया कि यह बालक दोनों पक्षों में से जिस पक्ष के पास स्वेच्छा से चला जायगा, उस ही के पास रहेगा ।
राजाज्ञा के अनुसार प्रथम अवसर माता को दिया गया। सुनन्दा ने बालकों Date अपनी प्राकर्षित कर लेने वाले अनेक प्रकार के सुन्दर एवं मनोहर खिलौने, बालकों को अत्यन्त प्रिय मिष्टान्न आदि बालक वज्र की ओर प्रस्तुत करते हुए उसे अपने पास बुलाने के लिए अनेक बार मधुर सम्बोधनों एवं करतलध्वनि के साथ करयुगल प्रसारण आदि से उसका आह्वान किया। पर सब व्यर्थ । एक प्रबुद्धचेता योगी की तरह वह प्रलोभनों की ओर किंचित्मात्र भी आकृष्ट नहीं हुआ। वह अपने स्थान से उस से मस तक नहीं हुआ ।
तदनन्तर राजा ने बालक के पिता मुनि धनगिरि को अवसर दिया । चार्य घनगिरि ने अपना रजोहरण बालक वज्र की ओर उठाते हुए कहा :- " वत्स ! यदि तुम तत्वज्ञ और संयम ग्रहण करने के इच्छुक हो, तो अपनी कर्म-रज को झाड़ फेंकने के लिए यह रजोहररण ले लो ।""
आर्य धनगिरि अपना वाक्य पूरा भी नहीं कर पाये थे कि बालक वज्र अपने स्थान से उछल कर उनकी गोद में आ बैठा और उनके हाथ से रजोहरण लेकर उसे चंवर की तरह ठुलाने लगा । समस्त परिषद् यह देखकर क्षरण भर के लिए स्तब्ध रह गई । धर्म के जयघोषों से गगनचुम्बी राजप्रासाद गूंज उठा । "बालक वज्र संघ के पास ही रहेगा" - यह राजाज्ञा सुनाते हुए राजा ने साधुग्रों एवं संघ के प्रति भावभरा सम्मान प्रकट किया। तदनन्तर सब अपने-अपने स्थान को लौट गये ।
सुनन्दा मन ही मन विचार करने लगी- "मेरे सहोदर श्रार्य समित दीक्षित हो गये, मेरे पतिदेव भी दीक्षित हो गये और पुत्र भी दीक्षित के समान ही
। ऐसी दशा में मुझे भी श्रमणी धर्म में दीक्षित हो जाना चाहिये ।" पर्याप्त सोच-विचार के पश्चात् उसने दीक्षा ग्रहण करने का दृढ़ निश्चय किया और
१ जद्द सिकयव्ववसातो धम्मज्झयभूसियं इमं वइर । गेव्ह लहं रयहरणं, कम्मरयपमज्जणं धीर ॥
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[ प्रावश्य मलयवृत्ति, उपोद्घात, पृ० ३८७]
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