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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग पाय वज का नाम वज रखा और कहा - "यह बालक प्रवचन का प्राधार होगा, इसका संरक्षण किया जाब।"
प्राचार्य सिंहगिरि ने साध्वियों के उपाश्रय में शय्यातरी की देखरेख में बालक वज को सम्हला दिया और स्वयं वहां से किसी अन्य क्षेत्र के लिए विहार कर गये।
शय्यातरी बाविका अपने बालकों को सम्हालने से पहले बालक वज्र के दुग्धपान, स्नानमर्दन मादि का पूरा ध्यान रखती भौर दिनभर उपाश्रय में रखकर रात्रि में अपने घर से पाती। बालक भी मल-मूत्र की शंका होने पर मुखाकृति अथवा रुदन से शय्यातरी को सचेत कर देता और उन्हें कष्ट नहीं होने देता।
बालक की इस बदली हुई स्थिति और शय्यातरी श्राविका द्वारा बड़ी लगन के साथ की गई. सेवाशुश्रूषा के कारण उसके हृष्ट-पुष्ट होने की बात सुनकर सुनन्दा अपने पुत्र को देखने के लिए एक दिन उपाश्रय में प्रा पहुंची। अपने सुन्दर एवं स्वस्थ पुत्र को प्रसन्न मुद्रा में देखकर सुनन्दा के हृदय में मातृस्नेह उद्वेलित सागर की तरह उमड़ पड़ा। उसने शय्यातरी से अपने पुत्र को लौटाने का प्राग्रह किया किन्तु शय्यातरी ने देना स्वीकार नहीं किया। सुनन्दा स्नेहवश बालक वज को यथासमय पाकर स्तनपान करा जाती। इस तरह बालक वज ३ वर्ष का हो गया। वह जाति-स्मरण ज्ञान के कारण प्रस्तुत माहार ही ग्रहण करता और साध्वियों के मुख से शास्त्रों के श्रवण में बड़ी रुचि रखता।
कालान्तर में प्रार्य सिंहगिरि अनेक क्षेत्रों में विचरण करते हुए अपने शिष्यों सहित तुम्बवन में पधारे। सुनन्दा ने मार्य धनगिरि के पास पहुंच कर उनसे अपना पुत्र लोटाने की प्रार्थना की।
प्रार्य धनगिरि ने सुनन्दा को साध्वाचार के सम्बन्ध में समझाते हुए कहा - "श्राविके! हम साधु लोग साधु-कल्प के अनुसार जिस प्रकार एक बार ग्रहण की हुई वस्त्र-पात्रादि वस्तु को लौटा नहीं सकते, ठीक उसी प्रकार एक बार ग्रहण किये हुए बालक वज को भी तुम्हें नहीं लौटा सकते । तुम तो स्वयं धर्मज्ञा हो, प्रतः एक बार स्वीकार की हुई बात से मुकरने जैसा मनुचित कार्य तुम्हें शोभा नहीं देता। तुमने मार्य समित और अपनी सखियों को साक्षी बना कर बालक वज को हमें देते हुए कहा था- 'यह बालक में आपको देती हूं, अब मैं कभी इस बालक के सम्बन्ध में किसी प्रकार की बात नहीं करूंगी।' प्रतः अब तुम्हें अपनी उस प्रतिज्ञा का सम्यक् प्रकार से पालन करना चाहिये।"
आर्य धनगिरि द्वारा अनेक प्रकार से समझाने - बुझाने पर भी सुनन्दा ने जब अपना प्रविचारपूर्ण हठ नहीं छोड़ा तो संघ के प्रमुख सदस्यों ने भी उसे समझाने का प्रयास किया। किन्तु इस पर भी सुनन्दा ने हठाग्रह नहीं छोड़ा और उसने राजद्वार में उपस्थित हो राजा के समक्ष अपनी मांग रखते हुए न्याय की प्रार्थना की।
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