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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[मार्य वज्रस्वामी
सुनन्दा से अनुमति प्राप्त कर धनगिरि तत्काल घर से निकल पड़े । उस समय संयोगवश आर्य सिंहगिरि तुम्बवन में पधारे हुए थे । धनगिरि ने श्राचार्य सिंहगिरि की सेवा में उपस्थित हो निग्रंथ प्रव्रज्या ग्रहरण की श्रीर गुरुचरणों में श्रागमों का अध्ययन करने के साथ-साथ कठोर तपश्चरण एवं संयम साधना करने लगे । श्रार्यं धनगिरि वैराग्य के रंग में इतने गहरे रंग गये थे कि उन्होंने कभी क्षरण भर के लिये भी अपनी पत्नी का स्मरण तक नहीं किया ।
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सुनन्दा ने गर्भकाल पूर्ण होने पर वीर निर्वाण संवत् ४६६ में एक परमतेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । सुनन्दा द्वारा पुत्र को जन्म दिये जाने के समाचार जिस किसी ने सुने, उसने बड़ी प्रसन्नता प्रकट की । परिवार की स्त्रियों और सुनन्दा की सखियों ने बड़े हर्षोल्लास से पुत्र का जन्मोत्सव मनाया। उस श्रानन्द के अवसर पर किसी ने कहा- "यदि इस बालक के पिता धनगिरि प्रव्रजित न हुए होते तो आज इसका जन्मोत्सव और भी अधिक हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता ।"
उपरोक्त वाक्य के कर्णरन्ध्रों में पड़ते ही पूर्वजन्म के संस्कारों से बालक को जातिस्मरण ज्ञान हो गया । नवजात शिशु ने मन ही मन विचार किया - "अहो ! मेरे पिता बड़े पुण्यशाली हैं कि उन्होंने श्रमणत्व स्वीकार कर लिया । मुझे भी कालान्तर में यथाशीघ्र संयम ग्रहण करना है, क्योंकि संयम के परिपालन से ही मेरा भवसागर से उद्धार हो सकता है। उसकी माता का उसके प्रति पुत्रस्नेह प्रगाढ़ न बने और उसके व्यवहार से पीड़ित हो माता उसका शीघ्र ही परित्याग कर दे, इसके लिये रुदन को ही शीघ्र फलदायी समझ कर बालक ने तत्काल रुदन करना प्रारम्भ किया। बालक को रुदन से उपरत कराने हेतु सुनन्दा ने, सुनन्दा की सखियों ने और सभी बड़ी, बूढ़ी, सयानी स्त्रियों ने सभी प्रकार के उपाय कर लिये किन्तु बालक का रुदन निरन्तर चलता रहा । अपने पुत्र के अनवरत क्रन्दन से सुनन्दा बड़ी दुखित रहने लगी। उसे न रात्रि में क्षणभर के लिये चैन था न दिन में । वह बार-बार दीर्घ निश्वास छोड़ कर कहती - " पुत्र ! यों तो तू बड़ा नयनाभिराम है, तुझे देख-देख कर मेरी आँखें प्राप्यायित हो जाती हैं पर तेरा यह अहर्निश क्रन्दन बड़ा क्लेशप्रद लगता है। यह मेरे हृदय में शूल की तरह चुभता है । इस प्रकार येन केन प्रकारेण सुनन्दा ने ६ मास छः वर्षों के समान व्यतीत किये। संयोगवश उस समय प्रार्य सिंहगिरि का तुम्बवन में पुनः पदार्पण हुआ ।
मधुकरी की वेला में जिस समय प्रार्य धनगिरि मधुकरी हेतु अपने गुरु से आज्ञा प्राप्त कर प्रस्थान करने लगे, उस समय किसी पक्षिविशेष के रव को सुन कर निमित्तज्ञ आर्य सिंहगिरि ने अपने शिष्य धनगिरि को सावधान करते हुए कहा " वत्स ! ग्रांज तुम्हें भिक्षा में सचित्त, प्रचित्त ग्रथवा मिश्रित जो भी वस्तु मिले. उसे बिना किसी प्रकार का विचार किये तुम ग्रहण कर लेना ।"
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