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मार्य वजस्वामी] . दशपूर्वपर-काल : पायं नागहस्ती
भोगों के प्रति अनिच्छा होते हुए भी धनपाल के प्रत्यधिक प्रेमपूर्ण प्राग्रह के समक्ष धनगिरि को झुकना पड़ा। अन्ततोगत्वा एक दिन शुभ मुहूर्त में सुनन्दा के साथ धनगिरि का विवाह बड़ी धूमधाम और हर्षोल्लास के साथ सम्पन्न हो गया। नवदम्पति सहज-सुलभ सांसारिक भोगोपभोगों का मर्यादापूर्वक उपभोग करने लगे। कुछ ही दिनों पश्चात् सुनन्दा के गर्भ में एक भाग्यशाली जीव अवतरित हुआ।
. गर्भसूचक शुभ-स्वप्न से धनगिरि और सुनन्दा को दृढ़ विश्वास हो गया कि उन्हें प्रत्यन्त सौभाग्यशाली पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। गर्भ की अभिवृद्धि के साथसाथ सुनन्दा के हर्ष की भी अभिवृद्धि होने लगी। आशा के अतिसुन्दर मानसरोवर में उसका मनमराल हिलोरों के साथ पठखेलियां करने लगा। वह ग्रहनिश अनिर्वचनीय प्रानन्द का अनुभव करती हुई परमप्रमुदित मुद्रा में रहने लगी। _ "ज्ञाते तत्त्वे कः संसारः" - इस उक्ति के अनुसार ज्ञाततत्त्वा विरक्त धनगिरि के मन में सांसारिक भोगों के प्रति किसी प्रकार का प्राकर्षण प्रवशिष्ट नहीं रहा। वे घर परिवार, और वैभव मादि को प्रगाढ़ बन्धन एवं प्रपंचतुल्य समझते थे। . उन्होंने प्रात्मकल्याण के लिये उपयुक्त अवसर समा कर अपनी पत्नी की प्रसन्न मुद्रा से लाभ उठाने का निश्चय किया।
. धनगिरि ने एक दिन सुनन्दा से कहा- “सरले ! तुम्हें यह विदित ही है कि मैं सापनापथ का पथिक बन कर प्रात्महित-साधन करना चाहता है। सौभाग्य से तुम्हें अपना जीवन यापन करने के लिये शीघ्र ही पुत्र का प्रवलम्बन प्राप्त होने वाला है। अब मैं प्रवजित हो भात्मकल्यारण करना चाहता है। तुम्हारे जैसी प्रार्य सन्नारियां अपने दयित के अभ्युत्थान-मार्ग में किसी प्रकार का अवरोष उपस्थित करना उचित नहीं समझतीं। वे अपने प्रियतम के अभीष्ट पथ को प्रशस्त बनाने हेतु महान् से महान त्याग करने के लिये सदा सहर्ष कटिबद्ध रहती हैं । अतः तुम मेरे आत्मसाधना के मार्ग में सहायक बन कर मुझे प्रवजित होने की अनुमति प्रदान करो। यही मेरी हार्दिक इच्छा है।"
प्रार्य धनगिरि के अन्तस्तलस्पर्शी उद्गारों से सुनन्दा का सुषुप्त प्रार्य-नारीत्व अपने सनातन स्वरूप में सहसा जागृत हो उठा। उसने शान्त, मन्द पर सुदृढ़ स्वर में कहा:-"प्राणाधार ! भाप सहर्ष अपना परमार्थ सिद्ध कीजिये। मैं आपके द्वारा दिये हुए सम्बल के सहारे आर्यनारी के अनुरूप गौरवमय जीवन व्यतीत कर लूंगी।" 'प्राचार्य प्रभाचन्द्र ने प्रभावक चरित्र में उल्लेख किया है कि गौतमस्वामी द्वारा प्रष्टापद पर्वत पर प्रतिबोधित सामानिक वैश्रमण देव देवायु पूर्ण होने पर सुनन्दा के गर्भ में उत्पन्न हुमा । वही जन्म ग्रहण करने के पश्चात् वजस्वामी के नाम से विख्यात हुमा । यथा:- स वैश्रमणजातीयसामानिक सुरोऽन्यदा।
अष्टापदाद्रिशृंगे यः प्रत्यबोषीन्द्रभूतिना ।।४२॥ सुनन्दाकुक्षिसारेयावतीर्ण: स्वायुषः आये।
[प्रभावक परित्र
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