________________
५६६
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
प्रार्य वनस्वामी भगवान् महावीर के शासन में हुए प्रभावक प्राचार्यों में मार्य वचस्वामी का बड़ा महत्वपूर्ण स्थान है। आपके जीवन की सबसे बड़ी विशेषता यह रही है कि आपको अपने जन्म के तत्काल पश्चात् ही जातिस्मरण ज्ञान हो गया और अपने जन्म के प्रथम दिन से ही आप संसार से पूर्णरूपेण विरक्त एवं वैराग्य भावनाओं से प्रोत-प्रोत हो जीवनपर्यंत अहर्निश स्व-पर कल्याण में निरत रहे।
__ आर्य वज्रस्वामी के पितामह श्रेष्ठी धन अवन्ती प्रदेश के तुम्बवन नामक नगर के निवासी थे। उनकी गणना अवन्ती राज्य के प्रतिसमृद्ध, प्रतिष्ठित एवं प्रमुख श्रेष्ठियों में की जाती थी। दानशीलता, दयालुता एवं उदारता आदि गुणों के कारण श्रेष्ठी धन का यश उस समय आर्यधरा में दूर-दूर तक फैला हुआ था।
श्रेष्ठी धन के धनगिरि नामक एक मात्र पुत्र था जो बड़ा तेजस्वी, सुकुमार, सौम्य और सुन्दर था। श्रेष्ठिपुत्र धनगिरि बाल्यावस्था से ही ऐहिक आकर्षणों के प्रति उदासीन और अपनी अवस्था के अननुरूप. सदा धार्मिक विचारों में ही निमग्न रहता था। संभवतः आर्य धनगिरि के युवा होने से पूर्व ही श्रेष्ठी धन का देहावसान हो चुका था।
उन दिनों तुम्बवन नगर में धनपाल नामक एक व्यापारी रहता था, जो विपुल वैभव तथा अतुल सम्पत्ति का स्वामी था। श्रेष्ठी धनपाल के समित नामक एक पुत्र और सुनन्दा नाम की एक सर्वगुण-सम्पन्ना परम रूप-लावण्यवती पुत्री थी। श्रेष्ठिपुत्र समित ने आर्य सिंहगिरि के उपदेश से प्रबुद्ध हो पूर्ण तरुणावस्था में ही अपने पैतृक अमित वैभव का परित्याग कर उत्कृष्ट वैराग्य के साथ आर्य सिंहगिरि के पास धमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली।
उधर जव सुनन्दा किशोरावस्था के कगार पर पहुंची तो धनपाल को अपनी कन्या के योग्य वर ढूंढने की चिन्ता हुई। अपने समान कुल, शील एवं धनसम्पन्न श्रेष्ठी धन के पुत्र धनगिरि को अपनी पुत्री के लिये योग्य समझ कर धनपाल ने उसके समक्ष सुनन्दा से पाणिग्रहण करने का प्रस्ताव रखा। सांसारिक भोगों से निस्पृह धनगिरि ने अति विनम्र शब्दों में एक प्रकार से धनपाल के प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए प्रश्न किया- "क्या भवसागर की भयावहता से भलीभांति परिचित आप जैसे स्वजनहितैषी महानुभावों द्वारा अपने किसी प्रियजन को भव-पाश में प्राबद्ध करना उचित कहा जा सकता है ?"
धनपाल ने अतिशय स्नेहसिक्त स्वर में अनेक युक्तियों एवं दृष्टान्तों से धनगिरि को समझाते हुए कहा- “सौम्य ! भवार्णव से असंख्य भव्यों का समुद्धार करने वाले भगवान् ऋषभदेव ने भी ऋण चुकाने के समान भोगों का उपभोग करने के पश्चात् त्यागमार्ग को अंगीकार कर स्व तथा पर का कल्याण किया था। प्रतः तुम्हें भी मेरी बात को स्वीकार कर लेना चाहिये।"
Jain Education International
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only