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पायं वनस्वामी] दशपूर्वघर-काल : प्रायं नागहस्ती
५६६ "यथाज्ञापयति देव" कह कर आर्य धनगिरि प्रार्य समित के साथ भिक्षार्थ भ्रमण करते हुए सर्वप्रथम सुनन्दा के घर पहुँचे । आर्य धनगिरि और.समित को सुनन्दा के घर में भिक्षार्थ प्रवेश करते देख कर सुनन्दा की अनेक सखियां तत्काल सुनन्दा के पास पहुंची और उससे कहने लगीं- "सुनन्दे ! तुम अपना यह पुत्र धनगिरि को दे दो।"
सुनन्दा अपने पुत्र के कभी बन्द न होने वाले रुदन से दुखित तो थी ही। उसने अपनी सखियों की बात सुन कर तत्काल पुत्र को दोनों हाथों में उठा कर धनगिरि को वन्दन करते हुए कहा - "आपके इस पुत्र के प्रतिपल क्रन्दन से मैं तो बड़ी दुखित हो चुकी हूँ । कृपया आप इसे ले लीजिये और अपने पास ही रखिये। यदि यह आपके पास रह कर सुखी रहता है तो उससे भी मुझे सुखानुभूति ही होगी।"
आर्य धनगिरि ने स्पष्ट शब्दों में कहा- "श्राविके! मैं इस को लेने के लिये तैयार है किन्तु स्त्रियों की बात का कोई विश्वास नहीं । पंगु व्यक्ति की तरह उनकी बात आगे चलती नहीं । कालान्तर में किसी प्रकार का विवाद उपस्थित न हो जाय, इस दृष्टि से तुम अनेक व्यक्तियों को साक्षी बनाते हुए उनके समक्ष यह प्रतिज्ञा करो कि भविष्य में तुम कभी अपने पुत्र के सम्बन्ध में किसी प्रकार की कोई बात नहीं कहोगी।"
सुनन्दा ने अतीव खिन्न स्वर में कहा - "एक तो ये आर्य समित (संसार पक्ष से सुनन्दा के सहोदर) मेरे साक्षी हैं और इनके अतिरिक्त मेरी ये सभी सहेलियां साक्षी हैं। इन सबको साक्षी बनाकर मैं स्वीकार करती है कि इस क्षण के पश्चात् मैं अपने इस पुत्र के सम्बन्ध में कभी कोई बात नहीं कहूंगी।"
तदनन्तर सुनन्दा ने अपने पुत्र को मुनि धनगिरी के पात्र में रख दिया। बालक ने तत्काल परम सन्तोष का अनुभव करते हुए रुदन बन्द कर दिया। मुनि धनगिरि ने झोली के वस्त्र में सुदृढ़ गांठें लगाई और दक्षिण हस्त से दृढ़तापूर्वक पात्रबन्ध को थामे हए वे सुनन्दा के घर से उस स्थान की ओर प्रस्थित हए जहां
आर्य सिंहगिरि विराजमान थे । सुनन्दा के गृहांगण से निकल कर उपाश्रय पहुंचते पहुँचते मुनि की भुजा उस शिशु के भार से भग्न सी होने लगी। वे उस भार को उठाये किसी तरह अपने गुरु के समक्ष पहुँचे। भार से एक ओर अधिक झुके हुए धनगिरि को दूर से ही देख कर आर्य सिंहगिरि अपने शिष्य के सम्मुख पाये और धनगिरि के हाथ से उन्होंने वह झोलीबन्ध अपने हाथ में ले लिया। झोलीबन्ध को हाथ में लेते ही प्रार्यसिंह गिरि ने धनगिरि से आश्चर्य भरे स्वर में पूछा"मुने ! तुम यह वज्र के समान अत्यन्त भारयुक्त प्राज क्या ले पाये हो ? यह तो मेरे हाथों की पकड़ से भी खिसका जा रहा है।" यह कहते हुए आर्य सिंहगिरि ने अपने प्रासन पर पात्र को रखा और झोली को खोलकर देखा। पात्र में चन्द्रमा के समान कान्तिमान परमतेजस्वी बालक को देखकर मार्य सिंहगिरि ने उस बालक
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