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छठा निन्हव रोहगुप्त ]
दशपूर्वघर - काल : प्रार्य नागहस्ती
५६३
रोहगुप्त बोला - "अब तो वाद करना स्वीकार कर लिया है अतः अब उसे कैसे परास्त किया जाय, यह बताने की कृपा करें ।"
इस पर प्राचार्य श्रीगुप्त ने सिद्धमात्र विद्याएं देकर रोहगुप्त को अपना रजोहरण भी दिया और कहा - "यदि विद्याओं के उपरान्त भी कोई उपद्रव खड़ा हो जाय तो रजोहरण को घुमा देना । तुम्हें कोई नहीं जीत सकेगा ।”
रोहगुप्त गुरु द्वारा प्रदत्त विद्याएं और रजोहरण लेकर राजसभा में पहुंचा और बोला - "परिव्राजक ! अपना पूर्वपक्ष उपस्थित करो ।"
परिव्राजक ने सोचा कि यह श्रमण बड़े कुशल होते हैं अतः इन्हीं के सिद्धान्त को मैं अपनी ओर से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत करूं । इस प्रकार सोच कर वह बोला - "संसार में दो राशियां हैं - जीव राशि और प्रजीवराशि ।” रोहगुप्त ने प्रतिपक्ष में कहा - "नहीं राशियां तीन होती हैं। जीव-प्रजीव और नोजीव ।” जीव अर्थात् चेतना वाले प्राणी, जीव घटपदादि जड़ पदार्थ और नोजीव - छिपकली की कटी हुई पूंछ ।”
संसार में अन्य भी तीन प्रकार के पदार्थ होते हैं । दंड के भी तीन भाग होते हैं - प्रादि मध्य और अन्त । लोक भी उर्ध्वलोक, अधोलोक और मध्यलोक - इस प्रकार तीन होते हैं । इसलिये यह कहना ठीक नहीं है कि राशियां दो ही होती हैं ।'
इस प्रकार थोड़ी ही देर के शास्त्रार्थ में रोहगुप्त के प्रबल तर्कों से निरुत्तर होकर परिव्राजक खिसिया गया और वह अपनी विद्याओं के बल से रोहगुप्त को जीतने का प्रयास करने लगा। परिव्राजक ने क्रमशः वृश्चिकी, सर्पिकी, मूशिकी काकी एवं मृगी विद्यानों का रोहगुप्त पर प्रयोग किया। रोहगुप्त ने मयूरी, नकुली, मार्जारी, व्याघ्री और उलूकी विद्यानों के प्रयोग द्वारा परिव्राजक की उन सभी विद्यानों को प्रभावहीन बना दिया ।
विद्याबल के प्रयोग में भी रोहगुप्त से पराजित हो जाने पर परिव्राजक बौखला उठा । उसने अन्त में अपने अन्तिम अस्त्र के रूप में सुरक्षित गर्दभी विद्या का रोहगुप्त पर प्रयोग किया। रोहंगुप्त के पास उसे निरस्त करने वाली कोई विद्या नहीं थी अतः उसने गुरु द्वारा प्रदत्त रजोहरण के माध्यम से गर्दभी विद्या hi प्रभावहीन बना परिव्राजक को पराजित कर दिया। रोहगुप्त को विजयी और परिव्राजक को पराजित घोषित
राजा और सभ्यों द्वारा किया गया ।
परिव्राजक को पराजित करने के पश्चात् रोहगुप्त अपने गुरु की सेवा में लोटा और उसने अपनी विजय की सारी घटना उन्हें कह सुनाई ।
तीन राशियों की प्ररूपणा की बात सुनकर प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा" वत्स ! उत्सूत्र प्ररूपरगा कर विजय प्राप्त करना उचित नहीं । सभा से उठते ही तुम्हें यह स्पष्टीकरण कर देना चाहिये था कि हमारे सिद्धान्त में तीन राशियां नहीं हैं। मैंने तो केवल वादी की बुद्धि को पराभूत करने के लिये ही तीन राशियों
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