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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मार्य श्रीगुप्त-युग प्रधा• पाराधना के साथ साथ अंग शास्त्रों एवं दश पूर्वो का अध्ययन किया। आपने वीर नि० सं० ५३३ से ५४८ तदनुसार १५ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद से जिन शासन की सेवा की और १०० वर्ष, ७ मास एवं ७ दिन की पूर्णायू का उपभोग कर वी० नि० सं० ५४८ में स्वर्गारोहण किया। छठा निह्नव रोहगुप्त पाप ही का शिष्य था।
छठा निन्हव रोहगुप्त वीर नि० सं० ५४४ में रोहगुप्त से राशिक दृष्टि की उत्पत्ति बताई गई है ।' भगवद्वचन के एक देश का अपलाप करने के कारण रोहगुप्त को निह्नव माना गया है। पैराशिक मत की उत्पत्ति के सम्बन्ध में आवश्यक चूणि में निम्नलिखित उल्लेख किया गया है :
___ अंतरंजिका नगरी के बाहर भूतगुहा नामक एक चैत्य था। एक समय वहां श्रीगुप्त नामक प्राचार्य अपने शिष्य समूह के साथ पधारे। उस समय अंतरंजिका में राजा बलश्री का राज्य था। प्राचार्य श्रीगुप्त के अनेक शिष्यों में से रोहगुप्त नाम का एक बड़ा बुद्धिमान शिष्य था। वह ग्रामान्तर से प्राचार्यश्री की सेवा में अंतरंजिका पहुंचा। मार्ग में उसने एक परिव्राजक को देखा, जो अपने पेट पर लोह का पट्टा बांधे और हाथ में जामन की टहनी लिये हए था। लोगों से पूछने पर ज्ञात हुआ कि ज्ञानाधिक्य के कारण पेट कहीं फट न जाय, इसलिये उस संन्यासी ने अपने पेट पर लोह का पट्टा बांध रखा है। पेट पर लोहे का पट्टा रखने के कारण उसकी पोट्टसाल के नाम से प्रसिद्धि हो गई । परिव्राजक अपने हाथ में जम्बू (जामुन) की डाली को धारण किये मानो इस बात की ओर संकेत कर रहा था कि समस्त जम्बूद्वीप में उसके साथ वाद करने वाला कोई प्रतिवादी नहीं है। शास्त्रार्थ करने के लिये विद्वानों का आह्वान करते हुए वह ढिंढोरा पिटवा रहा था।
__ रोहगुप्त ने परिव्राजक द्वारा की गई घोषणा को सुना और परिव्राजक के अतिशय गर्व को देख कर ढिंढोरा रोका। उसने कहा- "मैं परिव्राजक के साथ शास्त्रार्य करूंगा।" • परिव्राजक के ढिंढोरे को रोकने के पश्चात् रोहगुप्त गुरु की सेवा में पहुंचा
और वन्दन-नमन के पश्चात् उसने प्राचार्य श्रीगुप्त की सेवा में निवेदन किया"भगवन् ! मैंने.पोट्टसाल परिव्राजक के साथ वाद करना स्वीकार किया है ।" .
प्राचार्य श्रीगुप्त ने कहा - "परिव्राजक के साथ वाद स्वीकार कर तुमने उचित नहीं किया। परिव्राजक विद्याबली है। यदि वह वाद में पराजित हो भी गया तो भी वह विद्यामों के प्रयोग से तुम्हें परास्त करने का पूरा प्रयास करेगा।" ' पंचसया पोयाला, तइया सिदिमयस्स वीरस्स ।
पुरिमंतरंजियाए, तेरासियदिदिठ उप्पना ॥२४५१॥ [विजेवावश्यक भाष्य
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