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५६० जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [मुरुण्ड की बहिन की दीक्षा जनता प्रभावित हुई। चारों ओर से प्राक्रोशपूर्ण तीव्र स्वर महावत पर गर्जनतर्जन के साथ बरसने लगे- "यह दुष्टता बन्द करो, मोड़ दो हाथी को, पूज्या आर्या की ओर एक डग भी बढ़ाया तो तुम्हारा प्रक्षेम होगा।" उद्वेलित सागर की तरह ऋद्ध अपार जनसमुद्र के आक्रोशपूर्ण कोलाहल से हाथी भी किंकर्तव्य विमूढ़ हो गया और साथ-साथ महावत भी। साध्वी धैर्य की प्रतिमूर्ति की तरह वस्त्र में लिपटी एक ओर खड़ी थी।
मुरुण्डराज राजप्रासाद के गवाक्ष से यह सब दृश्य देख रहा था। उसने जैन श्रमणी को परीक्षा में पूर्णतः उत्तीर्ण पाकर महावत की ओर संकेत किया । हस्तिवाहक ने विचित्र शब्दों के उच्चारण के साथ अपना अंकुश गजराज के गण्डस्थल पर दे मारा। हाथी तत्काल अपनी सूंड, पूंछ एवं बड़े-बड़े कान फटकारता हुमा मुड़ा और एक चिंघाड़ के साथ तीव्रगति से हस्तिशाला की ओर बढ़ गया।
मुरुण्डराज ने अपनी बहिन से कहा - "सहोदरे ! यही धर्म सर्वज्ञ-दृष्ट है।' तुम अपनी आत्मा का उद्धार करना चाहती हो तो इस जैन साध्वी के पास दीक्षा ग्रहण कर सकती हो।" मुरुण्डराज की विधवा बहिन ने जनश्रमणी दीक्षा ग्रहण कर ली।
मुरुण्डकाल में धार्मिक कटुता मुरुण्ड राज के समय देश के कतिपय भागों में धार्मिक कटुता अथवा धार्मिक असहिष्णुता किस प्रकार पर किये हुए थी, इसका परिचय भी निम्नलिखित छोटे से आख्यान से प्राप्त होता है।
पाटलिपुत्र के मुरुण्डराज की पुरुषपुर (पेशावर) के राजा के साथ प्रगाढ़ मैत्री थी। एक बार मुरुण्ड ने अपना एक दूत पुरुषपुर के अधिपति के पास भेजा। वहां के विदेश मंत्री ने उस विशिष्ट दूत के लिए समुचित प्रातिथ्य एवं प्रावास
आदि की व्यवस्था कर उसे दूसरे दिन पुरुषपुराधिप से मिलने के समय के सम्बंध में सूचित किया।
दूत दूसरे दिन राजा से मिलने हेतु अतिथिभवन से प्रस्थित हुआ। उन दिनों पुरुषपुर बौद्धों का केन्द्रस्थल बना हुआ था। वह बौद्धभिक्षुओं से इतना संकुल था कि भवन से बाहर निकलते ही दूत की दृष्टि सर्वप्रथम एक बौद्ध भिक्षु पर पड़ी।
दूत ने इसे घोर अपशकुन समझा और उस दिन राजा से मिलने का विचार छोड़कर पुनः अतिथिभवन में लौट गया। लगातार तीन दिन तक जब-जब भी दूत राजा से मिलने हेतु अतिथिगृह से बाहर निकला, तो उसे प्रत्येक बार सर्व ' एस धम्मो सवन्नु दिट्ठो।
[वृहत्कल्प भा०, भा० ४, पृ० ११२३] - " साधूनां समीपे भगिनी प्रव्रज्या ग्रहणायं विसर्जिता। [वही, पृ० ११२४]
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