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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[ श्रार्यं पादलिप्त
उसने वैसा ही किया । प्राचार्य से १० हाथ दूर एक मुनि के हाथ के पात्र से उसने चरणोदक लेकर पी लिया । फलस्वरूप उसको १० पुत्र होने का भविष्य बताया गया । श्रेष्ठिपत्नी प्रतिमाना ने घर पहुंच कर अपने पति को पूरी बात सुना कर कहा - "१० पुत्र होंगे तो उनमें से एक प्रथम पुत्र को गुरुदेव के चरणों में भेंट कर देना है ।"
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कालान्तर में प्रतिमाना ने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। उसका नाम नागेन्द्र रखा गया । प्रतिमाना ने उसे गुरु की निधि मान कर ८ वर्ष तक बड़े दुलार के साथ उसका लालन-पालन किया और फिर उसे गुरुचरणों में भेंट कर दिया । ८ वर्ष का जान कर गुरु ने नागेन्द्र की दीक्षित किया और मण्डन नामक मुनि की देख-रेख में उसकी शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया । प्रखर बुद्धि के कारण बालक मुनि नागेन्द्र स्वल्पकाल में ही सर्वविद्याविशारद बन गया । एक बार गुरु ने उसे जल लाने हेतु भेजा और जब वह कांजी लेकर लौटा तो गुरु ने उससे पूछा - " कहां से लाये हो ?"
उत्तर में मुनि नागेन्द्र ने काव्यमयी भाषा में कहा :
अंबं तंबच्छीए अपुफियं पुप्फदंतपंतीए । नवसालिकंजियं नववहूइ कुडएण मे दिन्नं || '
पुष्प की तरह दन्तपंक्ति वाली किसी ताम्राक्षी नववधु ने मुझे डांगर की तरोताजा कांजी करुए ( मृत्पात्र ) से बहराई है ।
गुरु ने नागेन्द्र मुनि के शृंगाररसगर्भित वचन सुनकर कहा - "पलित्तोऽसि । " बालमुनि नागेन्द्र बोला - "भगवन् ! मात्रा बढ़ाकर प्रसाद कीजिए ।" गुरु ने बाल मुनि की विचक्षणता देख उसे पादलेप की विद्या प्रदान की । इससे मुनि नागेन्द्र आकाशमार्ग से भ्रमरण करने में समर्थ हो गया ।
पाटलिपुत्र में सुरुण्ड के राज्य के समय की एक घटना है कि मुरुण्डराज के शिर में ६ नास से असह्य वेदना हो रही थी । संयोगवश पादलिप्त भी आचार्य पद से संघ के दायित्व को सम्हालने के अनन्तर पाटलिपुत्र पहुंचे । उस समय तक राजा ने शिरोवेदना की शान्ति के लिए विविध मंत्र-तंत्र, प्रौषध प्रादि के प्रयोगों के उपरान्त भी जब शान्ति प्राप्त नहीं की तब मंत्री को आचार्य पादलिप्त के पास भेज कर उनसे प्रार्थना की कि वे भूपाल की शिरोवेदना को दूर करने की कृपा करें ।
प्राचार्य राजप्रासाद में गये घुमाते हुए उन्होंने मंत्र शक्ति से 9 प्रभाषक चरित्र, पादलिप्तसूरिचरितम्, पृ० २६
और एक ओर बैठ कर अपने घुटने पर अंगुलि राजा की शिरोवेदना पूर्णतः शान्त कर दी । २
(क) जह-जह एसिरिंग जाणुयम्मि पालित्तश्रो भमाडे ।
तह-तह से सिरवेयरण परणस्सइ मुरुण्डरायस्स ।। [ प्रभावक चरित्र, पृ० ३० ] (स्व) सांसे वियरण, पणासति मुरुड रायस्स । ४४६० [ नि० भा० चू०, भा० ३पृ० ४२३ ]
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