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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१८. प्रायं नागहस्ती गुणहरमुख-कमल-विरिणग्गयाणमत्थं सम्म सोऊण जयिवसहभडारएण पवयणवच्छलेण चुणि सुत्तं कयं ।"'
उपरिलिखित उद्धरणों में यतिवृषभ को आर्य मंखु (मंगु) का शिष्य एवं आर्य नागहस्ती का अंतेवासी बताया गया है। शिष्य' एवं 'अंतेवासी' शब्दों की भाषा-विज्ञान की दृष्टि से परिभाषा की जाय तो समानार्थक होते हुए भी ये दोनों शब्द अपने आपमें विशिष्टार्थ को लिये हुए होने के कारण अपना-अपना पृथक स्थान रखते हैं। 'शिष्य' शब्द का अर्थ है संयमसाधना अथवा विद्याध्ययन हेतु गुरु का शिष्यत्व स्वीकार करने वाला । 'अंतेवासी' शब्द का अर्थ होता है -जीवनपर्यंत अथवा सुदीर्य काल तक ज्ञानदाता के पास रहते हुए तथा उनकी सेवा-शुश्रूषा करते हुए ज्ञानार्जन करने वाला। इन शब्दों की इस प्रकार की व्युत्पत्ति स्वीकार करने पर यह संभव प्रतीत होता है कि आर्य मंगू के स्थिरवास काल से कुछ समय पूर्व यतिवृषभ ने उनके पास दीक्षा स्वीकार की हो और उनकी स्थिरवास में रसगृद्धि एवं शिथिलाचार की भोर प्रवृत्ति देखकर आर्य मंगू के अन्य श्रमण परिवार की तरह उनका साथ छोड़ आर्य नागहस्ती की चरण-शरण ग्रहण की हो। तदनन्तर नागहस्ती के अन्तकाल तक उनकी सेवा में निरत रहते हुए उन्होंने उनसे ज्ञानार्जन किया हो। ऐसा प्रतीत होता है कि इस सम्पूर्ण घटनाक्रम की ओर संकेत करने के अभिप्राय से ही जयधवलाकार ने यतिवृषभ के लिये "आर्य मंखु के शिष्य" और “आर्य नागहस्ती के अन्तेवासी" - इन भिन्न पदों का प्रयोग किया है । ___नंदी-स्थविरावली की ३१वीं एवं ३२वीं प्रक्षिप्त गाथाओं के आधार पर प्रार्य मंगू और आर्य नागहस्ती के बीच में आर्य धर्म, आर्य भद्रगुप्त, आर्य वज्र तथा आर्य रक्षित के नाम देखकर कतिपय विद्वानों ने यह अभिमत व्यक्त किया है कि आर्य मंगू और आर्य नागहस्ती के बीच लगभग १५० वर्ष का अन्तराल रहा अतः यतिवृषभ को कसायपाहुड़ का ज्ञान देने वाले मंखु एवं प्राय नागहस्ती श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य मंगु और नागहस्ती से भिन्न हैं ।
वस्तुतः उन विद्वानों की इस प्रकार की मान्यता केवल भ्रान्ति पर आधारित होने के कारण मान्य नहीं की जा सकती। जिन ४ प्राचार्यों के नाम देखकर कुछ विद्वानों ने जो इस प्रकार की कल्पना की है, वस्तुतः आर्य धर्म से आर्य रक्षित तक के वे चारों प्राचार्य वाचक परम्परा के मुख्य प्राचार्य नहीं थे । वे तो वास्तव में अन्य परम्परा के तत्समयवर्ती वाचक प्राचार्य रहे हैं। उन चारों का मुख्य स्थान युगप्रधान-परम्परा में माना गया है। यह एक ही तथ्य इस भ्रान्ति का निराकरण करने के लिये पर्याप्त है।
इन सब तथ्यों के सन्दर्भ में विचार करने पर वाचक-परम्परा में आर्य मंगू के पश्चात् आर्य नन्दिल और नन्दिल के पश्चात् नागहस्ती - यह क्रम ही उचित प्रमाणित होता है। इस क्रम की प्रामाणिकता सिद्ध हो जाने पर आर्य मंगू और
' जयधवला, भाग १, पृ. ८८
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