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५५२ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग भद्रगुप्त-घु० प्रा० प्राचार्य के शिक्षागुरू होने का सौभाग्य प्राप्त है। वजस्वामी ने प्रापसे १० पूर्वो का ज्ञान प्राप्त किया।
मार्य भद्रगुप्त का यत्किचित परिचय उपलब्ध होता है, वह इस प्रकार है
आपका जन्म वीर नि० सं० ४२८ में, श्रमण-दीक्षा वीर नि० सं० ४४६ में इक्कीस वर्ष की अवस्था में, युगप्रधानचार्य पद वीर नि० सं० ४९४ में और स्वर्ग गमन वीर नि० सं० ५३३ में हुप्रा। आपने ४५ वर्ष तक सामान्य साधु पर्याय में और ३६ वर्ष तक युगप्रधानाचार्य पद पर रहते हुए भगवान महावीर के शासन की महती सेवा की।
इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध होता है कि आर्य रक्षित सूरि ने आपकी निर्यामणा (अन्तिम पाराधना) करवाई। आपकी पूर्ण प्रायु १०५ वर्ष, ४ मास और ४ दिन की थी।
गरणाचार्य
प्रार्य नन्दिल के वाचनाचार्य काल में वीर नि० सं० ५४७-४८ में प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य प्रार्य सिंह गिरि का स्वर्गवास हुआ।
१८ (२२) प्रार्य नागहस्ती-वाचनाचार्य प्राचार्य आर्य नन्दिल के पश्चात नागहस्ती वाचनाचार्य हए । नन्दीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धिगणि क्षमाश्रमण ने प्रापको कर्मप्रकृति के प्रधान ज्ञाता तथा जिज्ञासुमों की जिज्ञासामों का समुचित एवं संतोषप्रद समाधान करने में कुशल बताया है । 'पूर्वज्ञान' के धारक होने के कारण द्रव्यानुयोग और कर्मविषयक ज्ञान के पाप मर्मज्ञ माने गये हैं। श्रमरणसंघ-स्तोत्र आदि ग्रन्थों के अनुसार नागहस्ती (आर्य नाग) को युगप्रधान-प्राचार्य भी माना गया है पर इस सम्बन्ध में यह अन्वेषणीय है कि आर्य नागहस्ती और प्रार्य नागेन्द्र एक ही प्राचार्य के नाम हैं अथवा दोनों अलग-अलग समय के प्राचार्य हैं ।
हमारे विचार से आर्य नन्दिल के शिष्य वाचनाचार्य नागहस्ती और यूगप्रधानाचार्य नागेन्द्र, जिन्हें प्रार्य नाग तथा आर्य नागहस्ती के नाम से भी अभिहित किया जाता है, दोनों भिन्न-भिन्न काल के दो भिन्न प्राचार्य होने चाहिए। हमारे इस अनुमान में निम्न आधार विचारणीय हैं :
१. नागहस्ती को प्रभावकचरित्रानुसार पादलिप्त का गम माना गया है' और पादलिप्त का आर्य रक्षित से पहले होना प्रमाणित है। कारण कि पार्य रक्षित द्वारा संकलित अनुयोगद्वार सूत्र में “तरंगवईकारे" पद से प्रार्य पादलिप्त की स्मृति की गई है। इसके विपरीत प्रार्य नागेन्द्र को प्रार्य रक्षित के पश्चाद्वर्ती प्रार्य वज्रसेन की शिष्य-परम्परा में माना गया है । ' गच्छे विद्याधराख्यस्यायं नागहस्तिमूरयः ।।१५।। पुमिच्छसि चेत्तेपां, पादशौच जलं पिवे ।।१६।।
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