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प्रार्य पादलिप्त] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य नागहस्ती
५५७ शिरोवेदना दूर हो जाने से राजा परम प्रसन्न हंपा। उसने प्राचार्य पादलिप्त की और भी अनेक प्रकार से परीक्षा की और अन्त में वह उनका परम भक्त बन गया।
आर्य पादलिप्त की अप्रतिम प्रतिभा के सम्बन्ध में अनेक आख्यानों में से कुछ इस प्रकार हैं :
(१) एक बार प्रतिष्ठानपुर में राजा सातवाहन के यहां विद्वानों की सभा में सहसा बात चली कि सर्व विद्या विशारद प्राचार्य पादलिप्त वहां पहुंचने वाले हैं। विद्वानों ने अपनी प्रौढ़ता बताने के लिए जमे घृत से भरा एक कटोरा देकर एक आदमी को आचार्य श्री के पास भेजा। प्राचार्य पादलिप्त ने घी में एक सूई डाल कर कटोरा पुनः लौटा दिया। राजा ने यह सब वृत्तान्त सुन कर पण्डितों से पूछा कि घी से भरा कटोरा आचार्य श्री के पास भेजने में उन लोगों का क्या अभिप्राय था?
पण्डितों ने उत्तर दिया- 'कटोरे में घी के समान नगर विद्वानों से भरा है इसलिए आप सोच-समझ कर इस नगर में प्रवेश करें। इसके उत्तर में प्राचार्य ने घी में सूई डाल कर कटोरा लौटाया है।"
राजा ने कहा - "आप लोगों के प्रश्न का प्राचार्य ने निर्भयता से यह उत्तर दिया है कि जिस प्रकार जमे हुए घी में तीक्ष्ण सुई समा गई, उसी प्रकार मैं भी विद्वानों से मण्डित इस नगर में प्रवेश कर सकेंगा।"
प्राचार्य के उत्तर से सब प्रभावित हुए और राजा तथा पण्डितों ने सम्मुख जाकर सम्मानपूर्वक प्राचार्य श्री का नगर-प्रवेश करवाया। (२) आचार्य पादलिप्त की प्रत्युत्पन्नमति का एक उदाहरण इस
प्रकार है :एक बार वादियों के साथ विचारगोष्ठि में किसी ने कहा :
पालित्तय ! कहसु फुड, सयलं महिमंडलं भमंतेणं ।
दिठ्ठ मुयं च कत्थवि, चन्दणरससीयलो अग्गी ।। अर्थात् - हे पादलिप्त ! भूमण्डल पर विचरण करते समय तुमने कहीं चन्दनरस के समान शीतल अग्नि को देखा अथवा सुना हो तो स्पष्ट कहो। प्रत्युत्पन्नमति प्राचार्य पादलिप्त ने तत्काल उत्तर दिया :
अयसाभियोग संदूणियस्स, पुरिसस्स सुद्धहिययस्स ।
होइ वहंतस्स दुहं, चन्दणररासीयलो अग्गी ।। अर्थात् - प्रकीति के अभियोग से संतप्त-पीडित शुद्ध हृदय वाले पुरुष को अकीतिजन्य दुःख का वहन करते हुए अग्नि भी चन्दन के रस के समान शीतल प्रतीत होती है।
(३) 'तरंगवती जैसे विद्वत्तापूर्ण काव्य को देखकर जब सव विद्वानों ने पादलिप्त की प्रशंसा की तब राजा ने प्राचार्य से कहा - "हम सब संतुष्ट हैं और
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