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मार्य नंदिल वा०] दशपूर्वधर-काल : मार्य नंदिल.
इसी बीच आर्य नन्दिल का वहां पदार्पण हुआ। वैरोट्या ने वन्दन-नमन के पश्चात् प्राचार्य श्री को अपना सब दुःख कह सुनाया। प्राचार्य ने क्षमाधर्म की आराधना का उपदेश देते हुए उसे प्राश्वस्त किया और दूधपाक के दोहद की जानकारी देते हुए कहा "तुम्हारे दोहद की पूर्ति हो जायगी, चिन्ता मत करो।"
__ चैत्री पूर्णिमा के दिन वैरोट्या ने पुंडरीक तप का उपवास किया और उसकी सास ने दूसरे दिन साधर्मियों को भोजन कराने हेतु दुग्धपाक बनाया। उसमें से बची हुई कुछ खीर उसने वैरोट्या को भी दी। खीर का पात्र लेकर वैरोट्या तालाब पर गई और वस्त्र से प्रावृत्त क्षीरपात्र को तट पर एक सघन वृक्ष के मूल के पास रख कर स्वयं पैर धोने लगी। सहसा उस समय नागराज की अग्रमहिषी आई और उसने वह सब खीर पी ली। जब वैरोट्या ने लौट कर क्षीर पात्र को रिक्त देखा तो वह हर्षित मन से बोली- "जिसने भी खीर का पास्वादन किया है उसके मनोरथ पूर्ण हों।" सर्वभूतानुकम्पा रूप परोपकार की उस उत्कट भावना के फलस्वरूप नागराज की महिषी बड़ी प्रसन्न हुई। उससे वैरोख्या की उद्दात्त भावना जान कर नागराज ने भी दयार्द्र हो उसकी सास को स्वप्न में वैरोच्या के दोहद की पूर्ति करने की प्रेरणा की। तदनन्तर वैरोट्या का दोहद पूर्ण हुप्रा और समय पर उसने एक पुण्यशाली पुत्र को जन्म दिया। बालक का नाम नागदत्त रखा गया।
- कालान्तर में वैरोट्या ने अपने पति पद्मदत्त और पुत्र नागदत्त के साथ श्रमणधर्म की दीक्षा ग्रहण की। संयम की समुचित रूपेण पालना करते हए अन्त में पद्मदत्त तथा नागदत्त समाधिपूर्वक देहोत्सर्ग कर सौधर्म देवलोक में देव रूप से उत्पन्न हुए और वैरोट्या नागेन्द्र के ध्यान से प्रायु पूर्ण कर धरणेन्द्र की देवी के रूप में उत्पन्न हुई। ..
- आचार्य नन्दिल ने वैरोट्या के प्रशान्त जीवन में ज्ञानोपदेश द्वारा शान्ति प्रदान की थी अतः वैरोट्या धरणेन्द्र की महिषी के रूप में उत्पन्न होने के पश्चात् आचार्य नन्दिल के प्रति भक्ति एवं बहुमान रखने लगी। भगवान् पार्श्वनाथ के चरणों में भक्ति रखने वाले भक्तों के कष्टों का निवारण करने में वह समय-समय पर उनकी सहायता करने लगी।
कहा जाता है कि प्राचार्य नन्दिल ने वैरोच्या के स्तुतिपरक "नमिऊण जिणं पासं" इस मंत्रभित स्तोत्र की रचना कर वैरोट्या की स्मृति को चिरस्थायी बना दिया।
मार्य भद्रगुप्त-युगप्रधानाचार्य आर्य धर्म के स्वर्गगमन के पश्चात् वीर नि० सं० ४६४ में आर्य भद्रगुप्त युगप्रधानाचार्य पद पर अधिष्ठित हुए। दशपूर्वधर पार्य भद्रगुप्त मागमज्ञान के पारगामी और अप्रतिम विद्वान् थे। आपको वचस्वामी जैसे महान् युगप्रधान
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