________________
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग
[विक्रमादित्य
'विक्रम चरित' के अनुसार किसी सातवाहन वंशी राजा के साथ युद्ध में विक्रमादित्य के घातक प्रहार लगा और उज्जयिनी लोटने पर उसकी वहां मृत्यु हो गई ।
५५०
ई० सन् १०३० के आसपास हुए इतिहास के प्रसिद्ध विद्वान् भलबेरूनी ने भी अरबी भाषा की अपनी पुस्तक 'किताबुलहिन्द' में शालिवाहन नामक एक जमींदार के साथ विक्रमादित्य के युद्ध का और उस युद्ध में विक्रमादित्य की मृत्यु होने का उल्लेख किया है ।
प्रायः सभी जैन ग्रन्थों में विक्रमादित्य को जैन धर्मानुयायी बताया गया है ।
१७ (२१) आर्य नन्दिल - वाचनाचार्य
श्रार्य मंगू के पश्चात् वाचक-परम्परा में श्रार्य नन्दिल वाचनाचार्य हुए । नन्दीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देवद्धि ने श्रायें नन्दिल की स्तुति करते हुए लिखा है :
"नामि दंसणंमि य, तवविरणए निक्वकालमुज्जत । प्रज्जं नन्दिल खमरणं, सिरसा वंदे पसन्नमरणं ॥
उपरोक्त गाथा में प्रार्य देवद्धि ने नंदिल को ज्ञान, दर्शन, तप और विनय में सदा-काल तत्पर बतलाया है। उन्होंने नंदिल के जीवन का परिचय देते हुए "स्मरणं और पसन्नमरणं" - ये दो विशेषरण दिये हैं, इससे ज्ञात होता है कि आपका जीवन तपप्रधान था और श्राप कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी सदा प्रसन्नमन
रहते थे ।
प्रभावकचरित्र के अनुसार प्राप वैरोट्या नामक देवी के प्रतिबोधक माने गये हैं । वैरोट्या के प्रतिबोध की घटना संक्षेप में इस प्रकार है :
I
सार्थवाह वरदत्त की प्रियपुत्री वैरोट्या का पद्मिनी खण्ड के पदमकुमार नामक सार्थवाह के साथ पाणिग्रहण हुआ । सास की सेवाशुश्रुषा करते रहने पर भी वैरोट्या उसे संतुष्ट नहीं कर सकी। फलस्वरूप सास के प्रवज्ञापूर्ण कटु वचनों को सुन कर वैरोट्या चिन्ता से कृष रहने लगी। वह सदा यही सोचा करती "मेरे कृतकर्म का फल सुझे ही भोगना है। हंस कर भोगूंगी तो मुझे ही भोगना है भौर हाय-हाय करके भोगूंगी तो भी मुझे ही भोगना है ।' इस प्रकार विचार कर वह सदा मन को शान्त करने का प्रयास करती पर शरीर दुःख से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा । उसमें कृषता आ गई ।
"
-:
एक दिन नागेन्द्र के शुभस्वप्न के साथ वैरोट्या ने गर्भ धारण किया । सास अपने दुष्ट स्वभाववश यद्वा तद्वा बोला करती - "इस अभागिनी के भाग्य में पुत्र कहां, इसके तो पुत्री ही होगी ।"
वैरोच्या साम के सब तानों को शान्त भाव से सुना करती । तीन महिने के गर्भकाल में वैरोट्या को दुग्धपाक (खीर) का दोहद उत्पन्न हुआ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org