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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [हि० स्थ० और वि० पूर्वी राजस्थान में और उसके पश्चात् अवन्ती राज्य में बसने से लगाया जा सकता है।
विक्रम ने अवन्ती के राज्यसिंहासन पर आसीन होते ही अपने नाम का संवत् चलाने के स्थान पर कृत संवत् अथवा मालव संवत् क्यों चलाया ? इस प्रश्न का उत्तर खोजते समय विद्वानों ने आज तक एक बड़े महत्वपूर्ण तथ्य की ओर किंचित्मात्र भी दृष्टिनिक्षेप नहीं किया है। उस तथ्य की ओर ध्यान देने से संभवतः इस प्रश्न का सहज ही समाधान हो जाता है। वह तथ्य यह है कि बलमित्र-भानुमित्र तथा शकों की सम्मिलित सेना द्वारा पराजित एवं राज्यच्युत होने के पश्चात् गर्दभिल्ल की मृत्यु हो गई। ऐसी स्थिति में युवा राजपुत्र विक्रमादित्य के पास न तो कोई संगठित सेना ही रही और न कोई छोटा-मोटा राज्य ही। अपने पैतृक राज्य पर अधिकार करने के लिये निश्चित रूप से उसे विदेशी शकों के विरुद्ध प्रजा में विद्रोह भड़काने तथा किसी अन्य शक्ति की सहायता लेने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था। ऐसी स्थिति में क्या यह अनुमान लगाना अनुचित होगा कि विक्रम ने उस समय की एक वीर और योद्धा जाति के मालवों के साथ वैवाहिक अथवा अन्य किसी प्रकार के सम्बन्ध के माध्यम से मैत्री कर कार्यसिद्धि के लिये उनकी सहायता प्राप्त करने का पूरे मनोयोग से प्रयास किया होगा? इस प्रयास में सफलता प्राप्त होते ही निश्चित रूपेण विदेशी आतताइयों के अत्याचारों से पीड़ित अवन्ती की प्रजा में विद्रोह की आग भड़का, मालवों की सहायता से विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर प्रवन्ती के अपने पैतक राज्य पर अधिकार कर लिया होगा। झेलम के तटवर्ती पंजाब के उपजाऊ प्रदेश को परिस्थितिवश छोड़ कर आये हुए मालव लोगों ने भी अवन्ती प्रदेश की उर्वरा भूमि पर स्थायी रूप से बस जाने की प्राशा लिये शक राज्य के विनाश के लिये प्राणपण से विक्रमादित्य की सहायता की होगी। ___मालवों के इस प्रसीम उपकार के प्रति अपनी कृतज्ञता प्रकट करने के लिये विक्रमादित्य ने प्रवन्ती प्रदेश का नाम मालवं प्रौर मालवों के साथ हुई मैत्री को अमर बनाने के लिये प्रारम्भ में मालव राज्य में और कालान्तर में समस्त भारत में कृत सम्वत् अथवा मालव संवत् चलाया। लेखन प्रादि में भले ही यह कृत संवत् मालव संवत् लिखा जाता रहा हो पर शकों को भारत की धरा से भगा देनेवाले अपने प्रतापी एवं परोपकारी सम्राट के प्रति कृतज्ञता एवं श्रद्धा प्रकट करते हुए जनता जनार्दन ने बोलचाल में इसे विक्रम सम्वत के नाम से ही व्यवहार में लिया होगा। कोटि-कोटि कण्ठों पर चढा हुमा विक्रम संवत् अन्ततोगत्वा लेखन मादि में भी कृत संवत्-मालव संवत के स्थान पर व्यवहृत होने लगा।
__ ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामक एक महाप्रतापी राजा हुमा, इस तथ्य की पुष्टि केवल जनश्रुति ही डिण्डिमघोष के साथ नहीं करती अपितु ऐतिहासिक मनुश्रुति भी इसकी पुष्टि करती है। सभी मम्वप्रतिष्ठ विद्वानों को
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