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विक्रमादित्य]
दशपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू विक्रम संवत के आधार पर, ईसा की पहली शताब्दी के ऐतिहासिक विद्वान सातकर्णी राजा हाल को 'गाथासप्तशती' के उल्लेखों एवं उन्हीं के समकालीन विद्वान् गुरगाढय की वृहत्कथा के उल्लेखों के आधार पर यह तो स्वीकार करना ही होगा कि ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में विक्रमादित्य नामक प्रतापी राजा हा है। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान डॉ० स्टेनकोनो ने भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता के इस पहल को स्वीकार किया है।।
जनअनुश्रुति और ऐतिहासिक अनुश्रुति के साथ-साथ साहित्यिक अनुश्रुति से भी विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता की पुष्टि होती है। यह पहले बताया जा चुका है कि जैन एवं जैनेतर साहित्य के १०० से अधिक संस्कृत-प्राकृत एवं अन्य भारतीय भाषाओं के ग्रन्थ और हजारों आख्यान विक्रमादित्य की ऐतिहासिकता को प्रमाणित करते हैं। उनमें स्पष्टतः उल्लेख किया गया है कि भगवान् महावीर के निर्वाण के ४७० वर्ष पश्चात् तदनुसार ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य नामक एक प्रतापी राजा हुमा । अब यहां इस तथ्य की पुष्टि करने वाले कतिपय प्रमाण प्रस्तुत किये जा रहे हैं .
१. ईसा से ५७ वर्ष पूर्व विक्रमादित्य के अस्तित्त्व को सिद्ध करने वाले प्रगणित साधनों में विक्रम संवत् सबसे प्रमुख और प्रकाव्य प्रमाण है। हाथ कंगन को क्या प्रारसी' - तथा 'प्रत्यक्षे कि प्रमाणम्' - इन सूक्तियों को सार्थक करते हुए विक्रम संवत् ने वस्तुतः विक्रमादित्य के अस्तित्व को अमर बना दिया है। जिस संवत् का विगत २०३० वर्षों से अनवच्छिन्न-अजस्र गति से व्यवहार भारत में चला पा रहा है, उसका प्रचलन विक्रम नामक एक महान् प्रतापी राजा ने किया था- इस तथ्य को किस आधार पर अस्वीकार किया जा सकता है ? भारत के सुविशाल भूभाग में प्रायः सर्वत्र विक्रम संवत् का व्यवहार किया जाता है। इतने सुविशाल भूभाग में विक्रम.संवत् का पिछले २०३० वर्षों से उपयोग किया जाना- यह एक तथ्य ही इस बात का प्रबल एवं पर्याप्त प्रमाण है कि प्राज से २०३० वर्ष पहले विक्रम का अस्तित्व था, जिसने कि विक्रम संवत् का प्रचलन किया।
२. ईसा की प्रथम शताब्दी में हुए सातवाहनवंशी राजा हाल ने अपने 'गाथासप्तशती' नाम - मंगठीत ग्रन्थ में विक्रमादित्य की दानशीलता का उल्लेख करते हुए निम्नलिखित गाथा प्रस्तुत की है :
संवाहणसुहरसतोसिएण, देन्तेण तुहकरे लक्खं ।
चलणेण विक्कमाइ, चरिममणुसिक्सि तिस्सा ।।४६४ प्रर्थात् - जिस प्रकार महादानी राजा विक्रमादित्य अपने सेवकों द्वारा की हुई चरणसंवाहनादि साधारण सेवामों से भी संतुष्ट होकर उन्हें लाखों स्वर्ण मुद्रामों का दान कर देता था, उसी प्रकार विक्रमादित्य को उस दानशीलता का a "Problems of Saka and Satavabava History" - Journal of the Bibar and Orissa • Research Society, 1930.
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