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दशपूर्वधर-काल : आर्य मंगू
५३३ करते हुए प्राचार्य मंगू मथुरा पधारे और अपने मृदु, मनोहर एव वैराग्यपूर्ण वचनों से मथुरा के नागरिकों को उपदेश से प्रतिबुद्ध करने लगे। प्राचार्य के ज्ञान, वैराग्यपूर्ण प्रवचन के प्रभाव से प्रभावित हो मथुरा के श्रद्धालु भक्तों ने वस्त्रादि से उनकी बड़ी भक्ति की। दूध, दही, घृत, गुड़ आदि स्वादिष्ट पदार्थों से वे उन्हें प्रतिदिन प्रतिलाभित करते । प्राचार्य का मोह भाव जागृत हुआ और उन्होंने साता- सुख में प्रतिबद्ध होकर वहीं स्थिरवास कर दिया। साथ के शेष मुनि वहां से विहार कर गये।
निमित्तों का भी बड़ा प्रभाव होता है। उपादान अर्थात् आत्मसामर्थ्य में किश्चित्मात्र दुर्बलता पाते ही निमित्त को अपना प्रभाव जमाने में देरी नहीं लगती।
स्थिरवास में रहने के कारण प्राचार्य के तप, संयम, साधना में शिथिलता मा गई । उनका चारित्राराधन मन्द हो गया और ऋद्धि, रस, साता-गौरव का प्राबल्य बढ़ गया। भक्तजनों द्वारा दिये गए सुस्वादु आहार और प्रेमपूर्ण सेवा से वे उपविहार को छोड़ कर वहीं पर प्रमादभाव में रहने लगे । अन्तिम समय में अपने सदोष आचरण की बिना आलोचना किये और बिना प्रमाद त्यागे प्रायु पूर्ण कर वे चारित्र धर्म की विराधना के कारण यक्ष योनि में उत्पन्न हुए।'
ज्ञान के द्वारा जब अपने पूर्व भव का परिचय प्राप्त किया तो वे पश्चात्ताप करने लगे- "अहो ! मैंने दुर्बद्धि के कारण पूर्ण पुण्य से पाने योग्य महानिधान की तरह दुर्गतिहारी जिनमत पाकर भी अपना जीवन विफल कर दिया। ठीक ही कहा है - "चतुर्दश पूर्व के ज्ञाता भी प्रमाद के कारण अनन्तकाय में जाकर उत्पन्न होते हैं।"२ इस प्रकार परमनिर्वेद भाव से वे अपने पूर्वकृत प्रमाद की निन्दा करते रहे।
एकदा उन्होंने स्थंडिल भूमि की ओर जाते हुए अपने पूर्वभव के शिष्यों को देखा तो उन्हें प्रतिबोध देने हेतु वे अपना विचित्र स्वरूप बना कर मुह से लम्बी जिहा निकाल मार्ग में खड़े हो गये। यक्ष को देख कर एक सात्विक भावना ' (क) मयुरा मंगू मागम, बहुसुय वेरग्ग सढ़पूया य ।
सातादि-लोम-रिणतिए, मरणे जीहाइ णिमणे ।।३२००।। सोवि प्रणालोइय परिक्कतो विराहिय सामण्णो वंतरो पिटमण जक्खो जातो।
[निशीप चूरिण, भा०. ३, पृ० १५२-१५३] (स) कालं काऊण भवणवासी उबवण्णो, साहू परियोहणट्ठा भागमो।
___ वही, भा० २. पृ० १२५] (ग) सो गाढपमायपिसाय - गहियहिययो, विमुक्क तवचरणे ।
गारवतिग-परिवतो, सड्ढेसु ममत्त संजुत्तो ॥३ दडसिटिमयसामन्नो, निस्सामन्न पमायमचइता।
कालेण मरिय जामो, जसो तत्येव निदमणे ॥४॥ [दर्शनशुद्धि सटीक चरदसपुम्बधरावि, पमायमो जंविनंतकायेसु । एपि ह हा हा पावं, जीवनतए तया सरियं ॥१०॥
[पार्य मंगू कथा]
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