________________
५३२ - जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रार्य रे० (युगप्र०) एवं मेरुतुंगाचार्य विरचित विचारश्रेणी में युगप्रधानाचार्यों के गृहस्थपर्याय, सामान्य यतिपर्याय,युगप्रधानपर्याय और पूर्ण आयुका विवरण प्रस्तुत करने वाली गाथाओं के अनुसार रेवतीमित्र १४ वर्ष की आयु में दीक्षित हुए । ४८ वर्ष तक ज्ञान, दर्शन, चारित्र की सम्यकरूपेण उपासना करते हुए उन्होंने सामान्य साधुरूप से श्रमणधर्म की परिपालना की। वीर नि० सं० ४१४ में प्रार्य स्कंदिल (षांडिल्य के स्वर्गगमेन के पश्चात् आप युगप्रधान पद पर आसीन हए। तदनन्तर आपने ३६ वर्ष, ५ मास और ५ दिन तक युगप्रधान पद पर रहते हुए जिन-शासन की उल्लेखनीय सेवाएं की। वीर नि० सं० ४५० में १८ वर्ष की आयु पूर्ण कर आपने स्वर्गारोहण किया।
गणाचार्य - ऐसा प्रतीत होता है कि प्रार्य समुद्र के समय में प्रार्य सुहस्ती की परम्परा के गणाचार्य आर्य दिन ही रहे।
प्रार्य समुद्र के समय के राजवंश प्रार्य समुद्र के वाचनाचार्य काल में पाटलिपुत्र में शंगों, उज्जयिनी में नभोवाहन तथा नभोवाहन के पश्चात् गर्दभिल्ल तथा प्रतिष्ठानपुर में सातवाहन राजवंस के संस्थापक शिशुक का राज्य रहा। इस समय में अधिकांशतः यज्ञ यागादि कर्मकाण्ड एवं वैदिक संस्कृति का भारत में व्यापक प्रचार-प्रसार हुआ।
१६. प्रार्य मंगू-वाचनाचार्य प्राचार्य समुद्र, जिनका परिचय ऊपर दिया जा चुका है, वे रसों में इतने अनासक्त थे कि सरस-नीरस जो भी आहार भिक्षा में प्राप्त होता, उसको बिना स्वाद की अपेक्षा किये एक साथ मिला कर प्रशान्त भाव से सेवन कर लिया करते थे। उन्हें सदा यह विचार रहता था कि रसों में आसक्ति के कारण कहीं प्रात्मा कर्मपाश में प्राबद्ध हो भारी न बन जाय ।'
इनके इस प्रकार स्वाद-विजय और लाभ के प्रति अनासक्ति के कारण प्राचार्य देवद्धि ने 'अक्खुब्भिय समुद्दगंभीर' इस पद से पाएकी स्तुति की है। पार्य मंगू इन्हीं प्रार्य समुद्र के शिष्य थे।
प्राचार्य समुद्र के स्वर्गगमन के पश्चात् उनके शिष्य पार्य मंगू वीर नि० सं० ४५४ में वाचनाचार्य पद पर आसीन हुए। आप बड़े ज्ञानी, ध्यानी और सम्यग्दर्शन के प्रबल प्रचारक थे। प्राचार्य देववाचक ने नन्दी की स्थविरावली में मापके लिए भरणगं करगं झरगं' इन तीन विशेषणों का एक साथ प्रयोग करते हुए अभिव्यक्त किया है कि आप भक्तिपूर्वक सेवा करने वाले शिष्यों को कुशलता के साथ सूत्रार्थ प्रदान करते और सद्धर्म की देशना द्वारा सहस्रों भव्य जनों को प्रतिबोध देकर जिनशासन की महत्वपूर्ण सेवा करते थे।
निशीथ भाष्य और चूरिण के अनुसार आर्य मंगू बहुश्रुत और बहुशिष्य परिवार वाले होने पर भी उद्यतविहारी थे। एक समय विहारक्रम से विचरण 'परिपक्से मात्र समुद्दा, ते रसगिडीए भीता एक्कतो सम्बं मेलेउं मुंजति । [निशीथ पूणि]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org