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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [१६. आयं मंगू वाले शिष्य ने कहा - "देवानुप्रिय ! तुम देव, यक्ष अथवा जो भी हो प्रकट होकर बोलो। इस प्रकार तो हम लोग तुम्हारा अभिप्राय किंचित्मात्र भी नहीं समझ पा
यक्ष ने खेदपूर्ण स्वर में कहा - "हे तपस्वियो! मैं वही तुम्हारा गुरु प्रार्य मंगू हूँ।".
साधुओं ने भी खिन्न मन से कहा - "देव ! आपने इस प्रकार की दुर्गति किस प्रकार प्राप्त की ?"
यक्ष ने कहा - "प्रमाद के अधीन होकर चारित्र में शिथिलता लाने वालों की ऐसी ही गति होती है। हमारे जैसे ऋद्धि-रस-साता के गौरव वाले शिथिलविहारियों की ऐसी गति हो, इसमें आश्चर्य ही क्या है ? तुम लोग यदि दुर्गति से बचना और सुगति की ओर बढ़ना चाहते हो तो प्रमादरहित होकर उद्यत-विहार से विचरते हुए निर्ममत्व भाव से तप-संयम की आराधना करते रहना।"
साधुनों ने कहा - "यो देवानुप्रिय ! तुमने हमें ठीक प्रतिबुद्ध किया है।" यह कह कर उन्होंने तत्परता के साथ संयम-धर्म का प्राराधन प्रारम्भ किया और उद्यत-विहार से विचरने लगे।
नंदीसूत्र की स्थविरावली में प्राचार्य देववाचक ने, भणगं इस पद से कालिक आदि सूत्रों को पढ़ने वाले. करगं से सूत्रोक्त क्रियाकलाप को करने वाले और झरगं पद से धर्मध्यानं ध्याने वाले प्रादि विशेषणों से प्रार्य मंगू की स्तुति करते हुए उन्हें श्रुतसागर का पारगामी प्राचार्य बताया है। उनके द्वारा कहे गये - "पभावगं नारणदसंणगुणाणं" - इस पद से ऐसा प्रतीत होता है कि आर्य मंगू ज्ञान दर्शन के प्रबल प्रभावक थे। आगे चल कर प्राचार्य देववाचक ने यहां तक लिख दिया है - "श्रुतसागर के पारगामी एवं धीर आर्य मंगू को वंदन हो।"२ .
दिगम्बर परम्परा के मान्य शास्त्र "कसाय-पाहुड" की टीका जयघवला के अनुसार प्रार्य मंक्ष और प्रार्य नागहस्ती कसायपाहुड के चूणिकार प्राचार्य यतिवृषभ के विद्यागुरू माने गये हैं। जैसा कि जयधवलाकार ने लिखा है- प्राचार्य मंक्ष और प्राचार्य नागहस्ती द्वारा प्राचार्य यतिवृषभ को दिव्यध्वनिरूप किरण प्राप्त हुई।' ' दृष्ट्वा प्रासारयद्दीर्घा, जिह्वां बोधयितु सुधीः । तेष्वेकः सात्विक: साघुरुचे त्वं कोऽसि गुह्यकः ।।५।।
[प्राचारकल्प] २ भणगं करगं झरगं, पभावगं णाणदसणगुणाणं । वंदामि अज्जमगुं, सुयसागरपारगं धीरं ॥३०॥
[नंदीसूत्र स्थविरावली] 3 .."विउलगिरिमत्थयत्य वड्ढमाणदिवायरादो विरिणग्गमिय गोदम - लोहज्ज - जंबुसामियादि पाइरियपरम्पराए प्रागंतूण गुणहराइरियं पाविय गाहासरूवेण परिणमिय प्रजमखु - णागहत्थीहितो जइवसहायरियमुवणमिय चुण्णिसुत्तायारेण परिणददिग्वज्झरिण-किरणादो गव्वदे। - [कसायपाहुड (यदिवृषभाचार्यकृत चूणि एवं जयधवलाटीका सहित) अणुभागविभक्तो भाग ५, पृ० ३८८]
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