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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग
मार्य सिंहगिरि- गणाचार्य आर्य सुहस्ती की परम्परा में आर्य दिन्न के पश्चात् आर्य सिंहगिरि गणाचार्य हुए। आपके सम्बन्ध में केवल इतना ही परिचय उपलब्ध होता है कि आप विशिष्ट प्रतिभाशाली एवं जातिस्मरण ज्ञान सम्पन्न प्रभावशाली प्राचार्य थे। खुशाल पट्टावली के अनुसार वीर नि. सं० ५४७-४८ में अपना स्वर्गवास हुआ। वीर नि. सं. ४६६ में आर्य वज्र का जन्म हुमा, उससे बहुत पहले आर्य समित सिंहगिरि के पास दीक्षित हो चुके थे इससे अनुमान किया जाता है कि आर्य सिंहगिरि वीर नि. सं. ४६० में आचार्य रहे हों। आपके सुविशाल शिष्यपरिवार में से केवल आर्य समित, आर्य धनगिरि, आर्य वज्र और प्रार्य अर्हद्दत्त इन चार प्रमुख शिष्यों के ही नाम उपलब्ध होते हैं । उनका परिचय इस प्रकार है :
मार्य समित आर्य समित का जन्म अतिसमृद्ध अवन्ती प्रदेश के तुम्बवन नामक ग्राम में हुआ । आपके पिता का नाम धनपाल था जो कि बहुत बड़े व्यापारी थे। गौतम गोत्रीय वैश्य श्रेष्ठी धनपाल की उस समय के प्रमुख कोट्यधीशों में गणना की जाती थी। आर्य समित के अतिरिक्त श्रेष्ठी धनपाल के एक पुत्री भी थी, जिसका नाम सुनन्दा था।
श्रेष्ठी धनपाल ने अपने होनहार पुत्र समित की शिक्षायोग्य वय में शिक्षादीक्षा की समुचित व्यवस्था की। प्रार्य समित बाल्यकाल से ही विरक्त की तरह रहते थे। ऐहिक सुखोपभोगों के प्रति उनके चित्त में किञ्चित्मात्र भी अभिरुचि नहीं थी।
किशोरावस्था में प्रवेश करते ही उन्होंने अतुल धन-वैभव और सभी प्रकार की प्रचुर भोगसामग्री का परित्याग कर प्राचार्य सिंहगिरि के पास श्रमण-दीक्षा ग्रहण कर ली।
उसी तुम्बवन ग्राम के निवासी श्रेष्ठी धन के पुत्र-धनगिरि को समितं के साथ प्रगाढ़ मैत्री थी। श्रेष्ठी धनपाल ने अपने पुत्र समित के प्रवजित हो जाने पर उसके मित्र धनगिरि के समक्ष अपनी पुत्री सुनन्दा के साथ विवाह करने का प्रस्ताव रखा। यद्यपि धनगिरि ऐहिक भोगों के प्रति उदासीन था, तथापि अपने मित्र के पिता द्वारा अनन्य आग्रह किये जाने पर उसने अन्ततोगत्वा सुनन्दा के साथ विवाह किया। आर्य समित की बहिन सुनन्दा ने समय पर महान् प्रतापी एवं प्रभावक प्राचार्य वज्र को जन्म दिया।
प्रार्य समित ने दीक्षित होने के पश्चात् गुरुसेवा में रहते हुए विधिपूर्वक शास्त्रों का बड़ी ही लगन के साथ अध्ययन किया। वे मन्त्रविद्या के भी विशेषज्ञ ये। उन दिनों अचलपुर के समीप कृष्णा और वेणा नामक दो नदियों से घिरे हुए एक पाश्रम में ५०० तापस निवास करते थे। उनके कुलपति का नाम देवशर्म
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