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प्राख्यान प्रचलित हैं, जिनमें विक्रम की न्यायप्रियता, परोपकारिता प्रादि अनेक अद्भुत गुणों का बड़ा ही रोचक वर्णन उपलब्ध होता है ।
कुछ जैन ग्रन्थों के अाधार पर विक्रमादित्य का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है :
मालव प्रदेश की अवन्ती नगरी में गर्दैभिल्ल नामक राजा न्यायपूर्वक शासन करता था । उसकी पहली रानी धीमती से भर्तृहरि श्रौर उसके पश्चात् दूसरी सनी श्रीमती से विक्रम का जन्म हुआ ।"
अश्विनीकुमारों के समान सुन्दर स्वरूप वाले वे दोनों कुमार क्रमशः किशोर वय में प्रविष्ट हुए । गर्दभिल्ल ने अपने बड़े पुत्र का राजा भीम की राजकुमारी अनंगसेना के साथ बड़ी धूमधाम- पूर्वक पाणिग्रहण संस्कार करवा दिया । तदनन्तर गर्दभिल्ल ने अनेक देशों को विजित कर उन पर अपना श्राधिपत्य स्थापित किया ।
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ भार्य मंगू के स. के प्र. रा.
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कालान्तर में शूल रोग से राजा गर्दभिल्ल की मुत्यु हो गई और मन्त्रियों भर्तृहरि का प्रवन्ती के राज्यसिंहासन पर राज्याभिषेक कर दिया ।
एक दिन अपने अग्रज भर्तृहरि द्वारा किसी तरह अपमानित किये जाने के कारण विक्रमादित्य प्रमर्षवशात् खड्ग लेकर एकाकी ही प्रवन्ती राज्य से निकल पड़ा । 3
इस प्रकार बड़ा भाई भर्तृहरि प्रवन्ती राज्य पर शासन करने लगा और उसका अनुज विक्रमादित्य देश-देशान्तरों में परिभ्रमण करने लगा ।
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१ तत्र न्यायाध्वना सर्वा, जनता पालयन् सदा । गर्दभिल्लः नृपो राज्यं चकार स्वर्गिनाथवत् ॥१८॥ धीमती श्रीमतीत्याह्वे द्वे पत्न्यौ तस्य सुन्दरे ।।२१। दधाना धीमती गर्भं सुन्दरस्वप्नसूचितम् । शुभेऽह्नि सुषुवे पुत्रं पूर्वेवार्कस्फुरद्युतिम् ।। २२ ।। जन्मोत्सवं नृपः कृत्वाकार्य सज्जनबान्धवान् । ददौ भर्तृ हरेत्याख्यां पुत्रस्य मुदिताशयः ।। २३ ।। सम्प्राप्त समये हारिवासरेऽर्कोदयक्षले । श्रीमती सुषुवे पुत्रं निधानमिव मेदिनी ॥ २६ ॥ गर्दभिल्ल क्षमापालः कृत्वा जन्मोत्सवं मुदा । विक्रमार्केति नामादात्, सूनोरकं विलोकनात् ॥३०॥ २ प्रत्येद्यः शूलरोगेण गर्दभिल्लमहीपतिः ।
मृत्वा कस्मान्मरुद्धाम, जगाम धर्मतत्परः ||३६|| मृत्युकृत्यादिके कार्ये कृते मन्त्रीश्वरादयः । मदुत्सवं व्यधुर्भतृहरे राज्याभिषेचनम् ।।४०।। भूपेन विक्रमादित्योऽपमानं गमितान्यदा । एकाकी खङ्गमादाय ययौ देशांतरे क्वचित् ॥४२
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[विक्रमचरितम्, सगं १ ]
[ वही ]
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