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मायं मंगू के स० के प्र० रा०] दशपूर्वघर-काल : मायं मंगू महान् प्रतापी एवं परमप्रजावत्सल विक्रमादित्य नामक गण-राजा आसीन हुआ। विक्रमादित्य जिस दिन उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर आसीन हुआ, उसी दिन से अवन्ती राज्य में ओर उसके १७ अथवा १३ वर्ष पश्चात् सम्पूर्ण भारतवर्ष में उसके नाम से एक संवत् प्रचलित हुअा जो क्रमशः कृत संवत्, मालव संवत्, मालवेश संवत् और विक्रम सम्वत् के नाम से व्यवहृत हुा । आज भारत के प्रायः सभी भागों में विक्रम संवत् प्रचलित है और प्रतिदिन उस ऐतिहासिक दिवस का जन-जन को स्मरण कराता रहता है, जिस दिन शकारि विक्रमादित्य राज्य सिंहासन पर बैठा। दो सहस्र से भी अधिक वर्षों से विक्रम संवत् जैन कालगणना को सुनिश्चित करने तथा भारतीय ऐतिहासिक तिथिक्रम को प्रामाणिक रूप से सुनियोजित-सुव्यवस्थित बनाये रखने में प्रमुख एवं सर्वसम्मत आधार माना जाता रहा है।
वीर विक्रमादित्य के शौर्य, दानशीलता, परोपकारपरायणता, न्यायप्रियता एवं प्रजावत्सलता आदि गुणों से अोतप्रोत यशोगाथाओं से भारतीय वाङ्मय भरा पड़ा है। ईसा की पहली-दूसरी शताब्दी के विद्वान् गुणाढ्य की पैशाची भाषा की महान् कृति "वृहत्कथा" के आधार पर सोमदेव भट्ट द्वारा रचित "कथासरित्सागर" में विक्रमादित्य को अनाथों का नाथ, बन्धुहीनों का बान्धव, पितृहीनों का पिता, निराश्रितों का आश्रयदाता और प्रजाजनों का प्राण-त्राण एवं सर्वस्व तक बताया गया है।' विक्रम सम्बन्धी साहित्य के सम्यक पर्यालोचन के पश्चात् यदि यह कहा जाय तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम और महान् कर्मयोगी श्रीकृष्ण के पश्चात् भारतीय साहित्य, साहित्यकारों
और जनमानस पर सबसे अधिक गहरा प्रभाव विक्रमादित्य का रहा है। वस्तुतः विक्रमादित्य का नाम भारतीय जनमासन में रम गया है।
एक अज्ञात प्राचीन कवि ने तो विक्रमादित्य के लिये यहां तक कह दिया है कि - विक्रमादित्य नृपति ने उन महान कार्यों को किया, जिनको कि कभी कोई नहीं कर सका, इतने बड़े-बड़े दान दिये, जो कभी कोई नहीं दे सका और ऐसे-ऐसे असाध्य कार्यों को साध्य बनाया, जिनको अन्य कोई साध्य नहीं बना सका।२।।
__ भारतीय विभिन्न भाषाओं में विक्रमादित्य के सम्बन्ध में बड़ी ही प्रचुर मात्रा में साहित्य निर्मित किया गया है। उस समग्र साहित्य की यदि सूची तैयार की जाय तो संभवतः वह एक बहुत बड़ी सूची होगी। विक्रमादित्य के जीवन से सम्बन्धित अनुमानतः ५० से ऊपर पुस्तकें तो जैन साहित्य में आज दिन तक उपलब्ध हैं। अनुमानतः इतनी ही विक्रम सम्बन्धी पुस्तकें जैनेतर वाङमय में होनी चाहिये। इनके अतिरिक्त लोकभाषाओं में हजारों जनप्रिय लोककथाएं एक
' स पिता पितृहीनानामबंधूनां स बान्धवः
अनाथानां च नाथः सः, प्रजानां कः स नाभवत् ।। १८।११६२ २. तत्कृतं यन्न केनापि तहत्तं यन्न केनचित् । ___ तत्साधितमसाध्यं यदि क्रमार्केण भूभुजा ।।१२४६।।
[साङ्गधरपद्धति
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