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प्रार्य समित]
दतपूर्वधर-काल : प्रार्य मंगू था.।' दो नदियों से घिरा हा होने के कारण वह पाश्रम ब्रह्मद्वीपक के नाम से प्रसिद्ध था। संक्रान्ति प्रादि कतिपय पर्व दिनों के अवसर पर देवशर्म अपने मत की प्रभावना करने के उद्देश्य से पैरों पर एक विशिष्ट प्रकार का लेप लगाकर सभी तापसों के साथ कृष्णा नदी के जल पर चलता हुमा प्रचलपुर पहुंचता। इस प्रकार का चमत्कारपूर्ण अद्भुत दृश्य देख कर भोले-भाले और भावुक लोग बड़े प्रभावित होते और अशनपानादि से उन तापसों का बड़ा आदर-सत्कार करते। तापसों के भक्तगण बड़े गर्व के साथ श्रावकों के समक्ष अपने गुरु की प्रशंसा करते हए उनसे पूछते - "क्या तुम्हारे किसी गुरु में इस प्रकार की अद्भुत सामर्थ्य है ?" श्रावकों को मौन देखकर वे लोग और अधिक उत्साह और गर्व भरे स्वर में कहते - "हमारे गुरु की तपस्या का जैसा अद्भुत एवं प्रत्यक्ष चमत्कार है, उस प्रकार का चमत्कार और अतिशय न तुम्हारे धर्म में है और न तुम्हारे गुरुषों में ही। वस्तुतः हमारे गुरु प्रत्यक्ष देव हैं, इन्हें नतमस्तक हो श्रद्धापूर्वक नमन करो।"
तापसों के भक्तों के इस प्रकार के व्यंगभरे वचनों से श्रावकों के अन्तर्मन को गहरा आघात पहुंचता। उन्हीं दिनों प्रार्य सिंहगिरि के शिष्य एवं प्रार्य वज के मातुल प्रार्य समितसूरि का अचलपुर में पदार्पण हुमा। श्रावकगण ने मार्य समित को वन्दन-नमन करने के पश्चात् भूतल की तरह ही नदी के जल पर भी तापसों के चलने-फिरने की सारी घटना निवेदित की । प्रार्य समित कुछ क्षणों तक मौन रहे । श्रावकों ने पुनः निवेदन किया- "देव ! जनमानस में जिनमत का प्रभाव कम होता जा रहा है । कृपा कर कोई न कोई ऐसा उपाय कीजिए जिससे कि जैन धर्म का प्रभाव बढ़े।" ___आर्य समितसूरि ने सस्मित स्वर में कहा - "तापस जल पर चलते हैं, इसमें तपस्या का कोई प्रभाव नहीं, यह तो उनके द्वारा अपने पैरों पर किये जाने वाले लेप का प्रभाव है । भोले-भाले लोगों को वृथा ही भ्रम में डाला जा रहा है।"
____ श्रावकों ने तापसों द्वारा फैलाये गये मायाजाल और भ्रम को सर्वसाधारण पर प्रकट करने का दृढ़ संकल्प लिए कुलपति सहित सभी तापसों को अपने यहां भोजनार्थ निमन्त्रित किया। जब दूसरे दिन सभी तापस भोजनार्थ श्राधकों के यहां आये तो श्रावकों ने उष्ण जल से सभी तापसों के पैरों को धोना प्रारम्भ किया। कुलपति ने श्रावकों को रोकने का पूरा प्रयास किया। किन्तु श्रावकों ने उनकी एक भी बात नहीं सुनी। "पाप जैसे महात्मानों के चरणकमलों को बिना धोये ही यदि हम आपको भोजन करवा दें तो हम सब के सब महान् पाप के भागी हो जाएंगे" - यह कहते हुए श्रावकों ने बड़ी तत्परतापूर्वक उन सब तापसों के पैरों को खुब मल-मल कर धो डाला।
भोजनोपरान्त तापस अपने प्राश्रम की ओर प्रस्थित हुए। श्रावकों ने उन्हें ससम्मान विदा करने के बहाने हजारों नर-नारियों को वहां पहले ही एकत्रित कर लिया था। तापसों के पीछे विशाल जनसमूह जयघोष करता हुअा चलने लगा। ' देवशर्मनामा कुलपतिः परिवसति ।
[पिण्डनियुक्ति, पत्र १४ (१)]
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