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१६. मार्य गंगू] दशपूर्वधर-काल : मार्य मंगू
५३५ यह पहले उल्लेख किया जा चुका है कि नन्दी स्थविरावली की ३१ वीं तथा ३२ वीं गाथाओं में वाचक परम्परा के आर्य मंगू के पश्चात् आर्य धर्म, आर्य भद्रगुप्त, प्रार्य वज्र और प्रार्य रक्षित - इन चार युगप्रधान प्राचार्यों को वाचनाचार्य भी बताया गया है। रिणकार जिनदासगरिण महत्तर, वृत्तिकार प्राचार्य हरिभद्र और टीकाकार मलयगिरि ने इन दोनों गाथाओं का नंदीसूत्र की चूरिण, वृत्ति और टीका में निर्देश तक नहीं किया है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने इन गाथामों को प्रक्षिप्त माना है ।
इन चार युगप्रधान प्राचार्यों में से आर्य वज्र स्पष्ट रूप से प्रार्य सहस्ती की परम्परा के प्राचार्य हैं। शेष तीन आचार्य आर्य महागिरि की परम्परा के प्राचार्य है अथवा सुहस्ती की परम्परा के- इस सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता।
ऐसा अनुमान किया जाता है कि ये तीनों युगप्रधानाचार्य किसी अन्य ही स्वतन्त्र परम्परा के अथवा प्रार्य महागिरि की परम्परा की किसी शाखा के प्राचार्य हों और इनकी अप्रतिम प्रतिभा के कारण इन्हें वाचनाचार्य माना हो। अनेक प्राचीन ग्रन्थों के उल्लेखों तथा युगप्रधानाचार्य पट्टावली से यह निर्विवाद रूपेण प्रमाणित होता है कि ये चारों ही प्राचार्य अपने समय के महान् प्रभावक युगपुरुष और पागमों के पारदृश्वा थे। इनकी विशिष्ट प्रतिभा के कारण ही इन्हें युगप्रधान प्राचार्य के साथ-साथ वाचनाचार्य भी माना गया है।.
___ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि आर्य मंगू, आर्य नन्दिल और आर्य नागहस्ती ये तीनों ही वाचनाचार्य सुदीर्घजीवी हुए हैं और उनके वाचनाचार्य काल में ही उपरोक्त चारों युगप्रधानाचार्य वाचक वंश के न होते हुए भी अपनी विशिष्ट प्रतिभा एवं तलस्पर्शी आगम-ज्ञान के कारण वाचनाचार्य माने गये हैं।
इन सभी तथ्यों और मुख्य परम्परा को दृष्टिगत रखते हुए इन चारों प्राचार्यों का परिचय वाचनाचार्य परम्परा में न देकर युगप्रधानाचार्य परम्परा में दिया जा रहा है।
मार्य धर्म - युगप्रधानाचार्य मार्य रेवतीमित्र के पश्चात् वीर निर्वाण सं० ४५० में प्रार्य धर्म युगप्रधानाचार्य हुए । प्राप १८ वर्ष की वय में दीक्षित हुए। ४० वर्ष तक श्रमण धर्म की साधना कर माप युगप्रधान पद पर आसीन हुए। ४४ वर्ष तक युगप्रधान पद पर रहते हुए मापने वीरशासन की प्रभावशाली सेवा की। १०२ वर्ष, ५ मास, ५ दिन की पूर्ण मायु भोग कर आप वीर नि०सं० ४६४ में स्वर्गस्थ हुए । मेरुतुंगीया 'विचारश्रेणी' के उल्लेखानुसार वृद्ध परम्परा में आर्य मंगू का ही अपर नाम धर्म माना गया है। यदि इसमें तथ्य होता तो नंदी स्थविरावली और जयधवला में भी अवश्य इस प्रकार का उल्लेख होता।
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