________________
मार्य खपुट] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र
५३१ आर्य खपूट गडशस्त्रपुर में ही विराजित थे कि उनके पास भृगपुर से दो साधु आये और उन्होंने निवेदन किया- "भगवन् ! आपके इधर चले आने पर भुवन मुनि ने आपकी सम्हलाई हुई गोपनीय कपर्दी को खोल कर उसमें से एक पत्र प्राप्त किया, जिसमें उसे पाठ मात्र से सिद्ध होने वाली प्राषिणी विद्या प्राप्त हो गई है। वह उस विद्या के प्रभाव से प्रतिदिन उत्तमोत्तम भोजन मंगवा कर खाने लगा। इस पर स्थविरों ने जब उसे ऐसा करने से मना किया तो वह क्रुद्ध होकर सौगतों के विहार में चला गया है। विद्या के प्रभाव से पात्र आकाशमार्ग से जाते और भोज्य पदार्थों से भरे लौटते हैं। इस प्रकार के प्रभाव को देख कर श्रावक भी भुवन मुनि की ओर आकर्षित होने लगे हैं। ऐसी स्थिति में आपको वहां पधार कर संघ को प्राश्वस्त करना चाहिये ।"
मुनि युगल की बात सुन कर आर्य संपुट कुछ विचारमग्न हुए और गुड. शस्त्रपुर से भृगकच्छपुर की मोर चल पड़े। भृगुकच्छपुर पहुंच कर आर्य खपुट कहीं गुप्त रूप से ठहरे और भूवन मुनि द्वारा प्राकर्षिणी विद्या से मंगवाये गए अन्नपूर्ण पात्रों को आकाशमार्ग में ही शिला द्वारा फोड़ कर गिराने लगे। पात्रों से मिष्टान्न आदि भोजन लोगों के सिर पर गिरने लगा। अपने श्रम को विफल होता देखकर भुवन मुनि को यह समझने में देरी नहीं लगी कि आर्य खपुट वहां पधार चुके हैं। भयभीत होकर वह भृगुपुर से भाग निकला। आर्य खपुट मुनिमण्डल सहित बौद्ध-विहार में पहुंचे और अपनी विद्या के प्रभाव से सबको प्रभावित कर उन्होंने अन्य क्षेत्र की ओर विहार किया। [मावश्यक चूरिण के पाषार पर]
विशिष्ट विद्यानों के माध्यम से चमत्कार-प्रदर्शन के उस युग में प्रार्य खपुट ने जिन शासन की सेवाएं की। तपागच्छ पट्टावली के उल्लेखानुसार पार्य खपुटाचार्य का समय वीर नि० सं० ४५३.और प्रभावक चरित्र में वीर नि० सं० ४८४ बताया गया है। इन दोनों उल्लेखों को एक-दूसरे का पूरक, अर्थात वीर नि० सं० ४५३ में उनके प्राचार्य काल का प्रारम्भ और वीर नि० सं०४८४ में अवसान मान लिया जाय तो उपरोक्त दोनों ग्रन्थकारों के उल्लेख संगत और आर्य खपुट के प्राचार्य काल के निर्णायक बन सकते हैं।
प्रार्य रेवतीमित्र (युगप्रधानाचार्य) प्रार्य स्कन्दिलाचार्य के पश्चात् आर्य रेवतीमित्र युगप्रधानाचार्य हुए। मापके कुल, जन्म, जन्मस्थान प्रादि का परिचय प्राप्त नहीं होता । युगप्रधान यंत्र ' (क) श्रीवीरात् त्रिपंचाशदधिकचतुःशतवर्षातिक्रमे ४५३ भृगुकच्छे मार्य खपटाचार्य इति
पट्टावल्याम् । प्रभावकचरित्रे तु चतुरशीत्यधिकचतुःशत ४८४ वर्षे मार्य खप्टाचार्यः ।
[तपागच्छ पट्टावली] (ख) श्रीवीर मुक्तितः शतचतुष्टये चतुरशीतिसंयुक्त । वर्षाणां समजायत, श्रीमानाचार्यखपुटगुरुः ।।७६
[प्रभावक चरित्र, (विजयसिंहमूरिचरिते) पृ: ४३]
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org