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जैन धर्म का मौलिक इतिहास - द्वितीय भाग [ कालकाचार्य (द्वितीय)
जैन धर्म का प्रचार-प्रसार और अनेक भव्य जीवों का उद्धार किया । आपका शिष्य परिवार इतना विशाल था कि वह भारत और भारत से बाहर के विभिन्न प्रदेशों में विचरण कर अगणित भव्य जनों को सद्धर्म का अनुयायी बनाने लगा ।
इधर शक राजाओं के पारस्परिक वैमनस्य के कारण उज्जयिनी में शकों का राज्य शनैः शनैः शक्तिविहीन होने लगा । चार वर्ष' भी नहीं हो पाये थे कि विक्रमादित्य ने एक प्रबल सेना ले कर वीर निर्वाण संवत् ४७० में उज्जयिनी के शक-राज पर भयंकर आक्रमण किया और युद्ध में शकों को पराजित कर उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर अधिकार कर लिया ।
जैन वाङ्मय में अनेक ऐसे पुष्ट प्रमारण विद्यमान हैं, जिनसे निर्विवादरूपेण यह सिद्ध होता है कि विक्रमादित्य ने वीर नि० सं० ४७० में शकों को परास्त कर उज्जयिनी के राजसिंहासन पर अधिकार किया और उसी वर्ष से विक्रम संवत् प्रचलित हुआ । इस प्रकार के प्रवल प्रमारणों की विद्यमानता में भी गह प्रश्न आज तक एक अनबूझ पहेली के रूप में विद्वानों के समक्ष उपस्थित है कि विक्रम संवत् विक्रम के राज्यारोहण के समय से प्रारम्भ हुआ अथवा उसकी मृत्यु पश्चात् | जैन वाङ्मय में ही उपलब्ध एक-दो उल्लेखों ने इस प्रश्न को और भी जटिल रूप प्रदान कर दिया है, जिनमें यह बताया गया है कि विक्रमादित्य ने उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर आसीन होने के १७ वर्ष अथवा १३ वर्ष पश्चात् संवत्सर प्रचलित किया ।
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विक्रमादित्य के वीर नि० सं० ४७० में राज्यासीन होने का सीधा और स्पष्ट उल्लेख 'विचारश्रेणी' की एक गाथा में दृष्टिगोचर होता है, जो इस प्रकार है :
विक्कमरज्जारंभा, परप्रो, सिरिवीरनिव्वुई भणिया । सुन- मुणिवेय ( ४७०) जुतो, विक्कमकालाउ जिरणकालो ||
अर्थात् भगवान् महावीर के निर्वाण दिन से ४७० वर्ष पश्चात् विक्रम का राज्य प्रारम्भ हुआ ।
विक्रमादित्य ने विक्रम संवत् उज्जयिनी के राज्यसिंहासन पर प्रारूढ़ होते ही प्रचलित किया अथवा कालान्तर में - इस प्रकार के प्रश्न के उत्पन्न होने के पीछे भी एक कारण है । वह यह है कि दशाश्रुतस्कन्ध चूरिंग की एक गाथा में, गर्दभिल्लोच्छेदक कालकाचार्य के वीर नि० सं० ४५३ में होने का उल्लेख किया गया है ।" उस गाथा में दिये हुए संवत् के श्राधार पर साध्वी सरस्वती के अपहरणकर्त्ता गर्दभिल्ल का शकों द्वारा उच्छेद किया जाना ४५३ में और विक्रमादित्य द्वारा शकों का उन्मूलन एवं उज्जयिनी के सिंहासन पर आरूढ़ होना
[विचारश्रेणी (मेरुतु ग ) ]
१
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..." सग्गस्स चउ"...
२ तह गद्द भिल्लरज्जस्स छेत्रगो कालगांयरियो होही । तेवन्नचउसएहि ( ४५३) गुरणसयकलियो पहाजुत्तो ॥
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