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का० (द्वितीय) स्वर्णभूमि में] दशपूर्वधर-काल : प्रार्य समुद्र
५२३ कल्पना तक करना कठिन है। प्रतः ज्ञान के सम्बन्ध में कदापि गर्व करना उचित नहीं।"
इस प्रकार प्राचार्य कालक ने अपने प्रशिष्य आर्य सागर को प्रतिबुद्ध किया।
एक इस प्रकार की भी मान्यता दृष्टिगोचर होती है कि इन्हीं द्वितीय कालकाचार्य की परम्परा से षांडिल्य गञ्छ निकला।
प्राचार्य वृद्धवादो पौर सिखसेन विक्रमीय प्रथम शताब्दी के प्राचार्यों में वृद्धवादी का एक विशिष्ट स्थान है। प्राप सिद्धसेन के गुरू और बड़े ही प्रतिभाशाली एवं दृढ़ संकल्पशील संत थे। गौड़ देश के कौशल ग्राम में इनका जन्म हुआ। प्रापका जन्मनाम मुकुन्द था। विद्याधर वंश के प्राचार्य स्कन्दिलसूरि के उपदेश से विरक्त हो मुकुन्द ने उनके पास श्रमरण-दीक्षा ग्रहण की। प्रौढ़ वय में दीक्षित होने पर भी वे ज्ञानाभ्यास के बड़े रसिक थे। वे ज्ञान की पिपासा लिये दिन-रात बड़ी लगन के साथ विद्याभ्यास करते। उच्च स्वर से अभ्यास करते रहने के कारण अन्य साधुओं को विक्षेप होने लगा और उन्होंने उन्हें प्रातःकाल जल्दी उठ कर पढ़ने से मना किया। अन्य साधुनों द्वारा समय-समय पर उच्च स्वर से प्रयास करने का निषेध किये जाने के उपरान्त भी ज्ञानप्राप्ति की तीव्र लगन के कारण उनसे नहीं रहा गया । एक दिन किसी साधु ने उन्हें कह दिया- "इतने उच्च स्वर से पढ़कर क्या तुम्हें मूसल के फूल लगाना है ?"
__ मकुन्द मुनि के मन में यह बात चूभी और उन्होंने गुरुकृपा से सरस्वतीमंत्र प्राप्त कर २१ दिन तक निरन्तर प्राचाम्ल व्रत के साथ उसकी साधना की। मंत्रसिद्धि के परिणामस्वरूप सरस्वती प्रसन्न होकर बोली- “सर्वविद्यासिद्धो भव।"
इस प्रकार देवी प्रभाव से कवीन्द्र होकर मुनि मुकुन्द गुरुचरणों में उपस्थित हए और उच्च स्वर से संघ के समक्ष बोले - "जो मेरा यह कह कर उपहास करते हैं कि क्या वृद्धावस्था में यह मूसल के फूल लगायेगा, वे सब देखें, आज मैं वस्तुतः मूसल को पुष्पित किये देता हूं।"
यह कह कर मुकुन्द मुनि ने मैदान में खड़े हो अपनी विद्या के बल से सब के देखते-देखते प्रासुक जल से सींचकर मूसल को पुष्पित कर दिया और यह "जहा एस धूली ठविज्जमाणी उक्खिप्पमारणी य सम्वत्य परिसडइ, एवं प्रत्यो वि तित्यगरे. हितो गणहराणं, गणहरेहितो जाव अम्हं पायरिय उवज्झायाणं परंपराएण प्रागयं, को जाणइ कस्स केइ पज्जाया गलिया ? ता मा गव्वं काहिसि ।
[वृहत्कल्प, सभाष्य, १ भा., पृ. ७३-७४] १ मुहर्त मिव तत्रास्थात्, दिनानामेकविंशतिम् । सत्वतुष्टा ततः साक्षाद् भूत्वा देवी तमब्रवीत् ।।
[प्रभावक च०, पृ० ५५] ' वही, पृ० ५५. श्लोक ३१
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