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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [का (दि.) स्वर्णभूमि में शय्यातर ने कहा- "जब पाप के प्राचार्य ने प्राप लोगों को भी नहीं बताया तो मुझे कैसे बताते । अपने प्राचार्य की इस प्रकार अप्रत्याशित अनुपस्थिति से चिन्तित होकर जब शिष्यों ने बार-बार प्रत्याग्रहपूर्वक पूछा तो शय्यातर ने कहा- "पागमों के अध्ययन में पाप लोगों की मन्द प्रवृत्ति को देखकर प्राचार्य को बड़ा निर्वेद हमा है, प्रतः वे प्रार्य सागर के पास स्वर्णभूमि चले गये हैं।" यह कह कर शय्यातर ने अध्ययन के प्रति उपेक्षा के लिये उन शिष्यों को कटु शब्दों में उपालम्भ दिया।
इससे लज्जित हो शिष्य भी उसो समय स्वर्णभूमि की ओर चल पड़े। मार्ग में लोग जब उनसे पूछते कि यह कोन प्राचार्य जा रहे हैं? तो वे उत्तर देते"प्राचार्य कालक।" इस प्रकार, यह सूचना बड़ी तीव्र गति से स्वर्णभूमि में सर्वत्र फैल गई और लोगों ने सागर से कहा- "बहुश्रुत और बहुपरिवार वाले प्राचार्य कालक यहां पधार रहे हैं।" । यह सुनकर भाचार्य सागर बड़े प्रसन्न हुए और अपने शिष्यो से कहने लगे- "मेरे श्रदेय दादागुरू मा रहे हैं। उनसे मैं कुछ ज्ञातव्य बातें पूछंगा।"
सागर अपने अनेक शिष्यों को साथ लेकर उस युग के महान् भाचार्य अपने दादागुरू मार्य कालक की अगुपानी के लिये सम्मुख पहुंचा । प्रागन्तुक शिष्य समूह ने उनसे पूछा- "क्या यहां प्राचार्य प्राये हैं।" उन्होंने उत्तर दिया- “नहीं ! एक अन्य खंत तो पाये हुए हैं।"
उपाश्रय में पहुँच कर उज्जयिनी से पाये हुए साधु-समूह ने जब भावविभोर हो निस्सीम श्रद्धा के साथ अपने प्राचार्य के चरणों में वन्दन किया, तब पार्य सागर को मात हुमा कि ये खंत ही उसके दादागुरू प्राचार्य मार्य कालक हैं। वह लज्जा से भूमि में गड सा गया। वह पश्चात्ताप भरे स्वर में बोला- "अहो ! मैंने बहुत प्रलाप किया और क्षमाश्रमण से वन्दन भी करवाया।" तदनन्तर प्रासातना की शुद्धि के लिये प्रार्य सागर ने अपराह्न में 'मिथ्यादुष्कृत' किया और प्राचार्य के चरणों में मस्तक झुकाते हुए विनम्र स्वर में पूछा- "क्षमाश्रमण ! मैं कैसा अनुयोग करता हूं ?"
प्राचार्य कालक ने कहा- "अच्छा है, पर कभी भूल कर भी गर्व मत करना।" मार्य कालक ने मुट्ठी में धूलि ले उसे एक स्थान पर रखा। उसे पुनः उठा-उठा कर क्रमशः तीन स्थानों पर रखा और सागर को बताया कि जिस प्रकार यह धूलि की राशि एक स्थान पर डालने के पश्चात् वहां से दूसरे, तीसरे मादि स्थानों पर रखने और उठाने से निरन्तर कम होती जाती है, इसी प्रकार प्रर्थ भी तीर्थंकरों से गणधरों को, गणधरों से हमारे पूर्ववर्ती भनेक प्राचार्य-उपाध्यायों को परम्परा से प्राप्त हुआ है। इस तरह एक स्थान से दूसरे स्थान में मातेमाते इस अर्थ के कितने पर्याय निकल गये हैं, छूट गये हैं, विलीन हो गये हैं, इसकी
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