________________
प्रा. वृद्धवादी और सिद्धसेन] दशपूर्वधर-काल : आर्य समुद्र
५२७ सिद्धसेन ने डगमगाती चाल देख कर वृद्ध पालकीवाहक से पूछा"भूरिभारभराक्रान्तः, बाधति स्कन्ध एष ते?"
वृद्धवादी ने उत्तर में कहा :"तथा न बाधते स्कन्धः, यथा बाधति बाधते।"
परिचित स्वर में उत्तर सुन कर सिद्धसेन चौंक उठे और सोचने लगे -"मेरी भूल बताने वाला यह कौन ? ये कहीं मेरे गुरू वृद्धवादी तो नहीं हैं ?" उन्होंने तत्काल पालकी से नीचे उतर कर देखा और वृद्धवादी को पहिचान कर लज्जित मन से क्षमायाचना की।
प्रसंगवश सिद्धसेन को साधना में और अधिक स्थित करने के लिये वृद्धवादी ने निम्नलिखित गाथा पढ़ कर उनसे इसका अर्थ पूछा :
अणफुल्लिप फुल्ल म तोडइ, मा रोवा मोडहिं । मणकुसुमेहिं अच्चि निरंजणु, हिंडहि कांइ वणेण वणु ।।१४।।
[प्रबन्धकोश] बहुत कुछ सोचने पर भी सिद्धसेन इस श्लोक का यथार्थ भाव नहीं समझ सके । तब वृद्धवादी ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा
"प्रणफुल्लिय फुल्ल म तोडइ" अर्थात् - सिद्धसेन ! योगरूपी वृक्ष के यश कीर्ति और प्रताप प्रादि जो फूल हैं, उन्हें केवलज्ञानरूपी फल के पाये बिना ही अविकसित दशा में मत तोड़।
__ "मा रोवा मोडहिं" - अर्थात् - महाव्रतों के रोपों (पौधों) को व्यर्थ ही मत मरोड़, मत रोंद।
"मणकुसुमेहिं प्रच्चि निरंजणु" - अर्थात् सद्भावरूपी मन के कुसुमोंफूलों से निरंजन जिनेन्द्रदेव की पूजा कर । अथवा सिद्धि प्राप्त निरंजन प्रभु की मनकुसुमों से पूजा कर ।'
___ "हिंडहि कांइ वणेण वणु" अर्थात् - व्यर्थ ही वन से वन भटकने की तरह राजरंजन मादि निरर्थक कार्य क्यों करता है ? कितनी सुन्दर शिक्षा है ? . वृद्धवादी की शिक्षा को सुन कर सिद्धसेन ने पालोचनापूर्वक शुद्धि की। वे संयम-साधना में पूर्णरूपेण स्थिर हुए और राजा को पूछ कर वृद्धवादी के साथ कठोर साधना करते हुए विचरण करने लगे।
___ जैनशास्त्रों की भाषा के प्रश्न को ले कर ब्राह्मण विद्वान् प्रायः कहा करते थे कि जैन परम्परा के प्राचार्य संस्कृत के ज्ञाता नहीं थे। अन्यथा शास्त्रों की रचना प्राकृत जैसी सरल भाषा में नहीं की जाती। इतना ही नहीं इनका महामन्त्र भी साधारण जनों की भाषा-प्राकृत में बोला जाता है। जातिगत संस्कार और
(क) प्रभावक परित्र में पालकी उठाने का उल्लेख नहीं है। (1) मारव निरंचनं वीतरागम् ।
[प्रभावक परिष
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org