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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [प्रा० ३० पौर सिद्धसेन प्रमाणित कर दिया कि दृढ़ संकल्प वाले मनुष्य के लिये कोई भी कार्य प्रसाध्य नहीं है। . वृद्ध मुनि मुकुन्द की अप्रतिम विद्वत्ता के कारण कोई भी प्रतिबादी उनके समक्ष वाद में खड़ा नहीं रह पाता था, इसलिये वृद्धवादी के नाम से उनकी चारों ओर प्रसिद्धि हो गई।
सब प्रकार से योग्य समझ कर मार्य स्कन्दिल ने उन्हें प्राचार्य पद पर नियुक्त किया। एक समय विहारक्रम से घूमते हुए वृद्धवादी भृगुपुर की ओर जा रहे थे। उस समय सिद्धसेन नाम के एक विद्वान्, जो अपने प्रज्ञाबल-बुद्धिबल के समक्ष संसार के अन्य विद्वानों को तृणवत् समझ रहे थे, शास्त्रार्थ की इच्छा से देश-देशान्तर में घूमते हुए भृगुपुर की मोर पहुंचे। वृद्धवादी की विद्वत्ता की यशोगाथाएं सुन कर वे उनके पीछे चल पड़े। उस समय वृद्धवादी विहार में थे। सिद्धसेन भी उनके पीछे-पीछे गये और मार्ग में दोनों का मिलन हुआ। मिलते ही सिद्धसेन ने वृद्धवादी से कहा- "मैं आपके साथ शास्त्रार्थ करना चाहता हूँ।"
प्राचार्य वृद्धवादी ने कहा-"अच्छी बात है, पर यहां शास्त्रार्थ की मध्यस्थता करने वाला कोई विद्वान सभ्य नहीं है। ऐसी दशा में बिना सम्यों के वाद में जयपराजय का निर्णय कौन करेगा?".
वाद की तीव्र उत्कण्ठा का शमन करने में असमर्थ सिद्धसेन ने चरवाहों की पोर इंगित करते हुए कहा- ये गोपाल ही सभ्य बनें।"
वृद्धवादी ने सिद्धसेन का प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया । गोपालकों के समक्ष शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुमा। सिद्धसेन ने वाद की पहल की। उन्होंने सभ्य गोपालों को सम्बोधित कर बड़े लम्बे समय तक पदलालित्यपूर्ण संस्कृत भाषा में बोलते हुए अपना पूर्वपक्ष प्रस्तुत किया। पर सिद्धसेन की एक भी बात उन गोपों के समझ में नहीं आई । जब सिद्धसेन अपना पूर्वपक्ष रखने के पश्चात् चुप हुए तो अवसरज्ञ वृद्धवादी ने दृढ़ कच्छा बांध कर संगीत की लय में बोलना प्रारम्भ किया, जिसका भावार्थ है- जो किसी जीव को नहीं मारता, चोरी नहीं करता, परदारगमन का परित्याग करता और यथाशक्ति थोड़ा-थोड़ा दान करता है, वह धीरेधीरे स्वर्गधाम प्राप्त कर लेता है।'
वृद्धवादी की बात सुनकर गोप बड़े प्रसन्न हुए और बोले - "मो, हो ! बाबाजी महाराज ने कैसा श्रुतिसुखद, सुन्दर और सही मार्ग बतलाया है। ये सिद्धसेनजी तो क्या बोले, क्या नहीं बोले, यह भी ज्ञात नहीं हुमा । केवल जोर-जोर से बोल कर इन्होंने हमारे कानों में टीस पैदा कर दी।" ' न वि मारियइ न वि चोरिय इ, परदारह गमणु निवारियइ । थोवा थोवा दाइयइ, सग्गि टुकु टुकु जाइयइ ।। [प्रबन्धकोश]
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