________________
५२०
जैन धर्म का मौलिक इतिहास-द्वितीय भाग [कालकाचार्य (द्वितीय) तिकायां दृश्यते परं तत्र प्रक्षेपगाथानां विद्यमानत्वेन तदवचूर्णावव्याख्यातत्वेन चेयं न सूत्रकृत्कर्तृकेति संभाव्यते ।"
इस प्रकार उक्त गाथा का मूल स्थान अनिर्णीत होने के कारण इसे अविश्वसनीय और प्रक्षिप्त ही कहा जा सकता है। फिर भी यह अवश्य विचारणीय है कि वीर नि० सं० ६६३ में चतुर्थी पर्युषणा प्रारम्भ होने की गाथोक्त वात तथ्यों की कसौटी पर खरी उतरती है या नहीं।
ऊपर बताया जा चुका है कि निशीथ चूर्णी और अन्य ग्रन्थों में निर्विवाद रूप से यह बात मानी गई है कि प्रतिष्ठानपुर के राजा सातवाहन के निवेदन पर कालकाचार्य ने सकारण चतुर्थी के दिन पर्युषणा की। जब यह मान लिया जाता है कि सातवाहन के समय में ही पर्यषणा पर्व चतुर्थी को हुआ तब यह मानना किसी भी तरह संगत नहीं होगा कि वी० नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य ने चतुर्थी से पर्व का अाराधन प्रारम्भ किया। क्योंकि यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि ईसा की तीसरी शताब्दी में प्रान्ध्र राज्य का अन्त हो चुका था। भडौंच में बलमित्र - भानुमित्र का राज्यकाल और प्रतिष्ठानपुर में सातवाहन का राज्यकाल भी, कालकाचार्य द्वितीय द्वारा वीर नि० सं० ४७० से ४७२ के बीच में भाद्रपद शुक्ला चतुर्थी के दिन पर्वाराधन प्रारम्भ किये जाने के काल से मेल खाता है ।
। ऐसी स्थिति में निर्विवाद रूप से यही प्रमाणित होता है कि कालकाचार्य द्वितीय में वीर नि० सं० ४७० से ४७२ के बीच किसी समय बलमित्र- भानुमित्र के पुरोहित द्वारा उत्पन्न की गई प्रतिकूल परिस्थिति के कारण चातुर्मासावधि में भडोंच से विहार कर प्रतिष्ठानपुर में वहां के राजा सातवाहन की प्रार्थना पर चतुर्थी के दिन पर्युषण पर्व की प्रतिष्ठापना की।
ऐसा प्रतीत होता है कि वी० नि० सं० ६६३ में कालकाचार्य चतुर्थ द्वारा वल्लभी के राजा ध्रुवसेन के पुत्र-शोक-निवारणार्थ संघ के समक्ष पहले-पहल कल्पसूत्र की बाचना की गई, नामसाम्य के कारण उस घटना के साथ द्वितीय कालकाचार्य द्वारा चतुर्थी के दिन पर्वाराधन की घटना को भी जोड़ दिया गया हो। इसके अतिरिक्त यह भी संभव है कि आगे चल कर विक्रम की बारहवीं शताब्दी में चतुर्थी के स्थान पर पुनः पंचमी को पर्वाराधन की प्रक्रिया प्रचलित हुई, उस समय चतुर्थी के पर्वाराधन को अर्वाचीन ठहराने की दृष्टि से किसी ने यह गाथा बना कर, किसी प्राचीन ग्रन्थ के नाम से प्रक्षिप्त कर दी हो।
द्वितीय कालकाचार्य के इस समय के सम्बन्ध में दशाश्रुत स्कंध की चूरिण में एक प्राचीन गाथा भी उपलब्ध होती है, जो इस प्रकार है :
तह गद्दभिल्लरज्जस्स छेयगो कालगायरियो होइ ।
तेवण चउसयेहि, गुणसयकलियो सुप्रपउत्तो ।।२ - कल्पकिरणावली, पृ० १३१ २ (क) दुस्समाकालसमणसंघथयं, प्रवचूरि
[पट्टावली समुच्चय (ख) अपापा वृहत्कल्प
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org